Friday, June 20, 2008

ये हाल अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

कल अपने विभाग मैं कुछ नए लोगो की भरती के लिए टेस्ट लेने का मौका मिला. 15 लोग थे जो सभी पत्रकारिता मे एम ऐ कर रहे थे. अपने आपको बड़ा गंभीर और कुछ नया सीखने को जागरूक दर्शाते हुए सभी पेपर देने से ज्यादा इस बात को जानने के लिए उतावले थे की ट्रेनिंग कितने दिनों में पूरी हो जायेगी और कन्फर्म कब तक हो जायेंगे. टेस्ट में पास होने के किसी को कोई चिंता नही थी. सब चाह रहे थे की ट्रेनिंग मिले और उनके रिज्यूमे में अमरउजाला का नाम शुमार हो जाए. ये जल्दबाजी किस बात की जो बिना काम सीखे ही लिख दिया जाए कि अमुक पेपर में काम किया और अमुक में ट्रेनिंग. दरअसल किसी अखबार में ट्रेनिंग मिलते ही ये सभी रंगरूट किसी न्यूज़ चेनल और अखबार में सब एडिटर के लिए ट्राई मरेंगे. इस बात का पता हमें भी है और ये भी जानते हैं. यहाँ भले ही ये कुछ सप्ताह के लिए काम करे या कुछ दिनों के लिए, इनके रिज्यूमे में अमर उजाला या किसी और पेपर का नाम जरूर एड हो जायेगा.
कभी कभी सोचती हू कि ये जल्दबाजी आख़िर किसलिए. अभी तो बहुत कुछ सीखना है. पत्रकारिता केवल डिप्लोमा या डिग्री कर लेने से आने वाली विधा नही है. ये काम के आपका पूरा समय और समर्पण मांगती है. आप एक महीना में दस अखबारों में काम करके पत्रकार नही बन सकते. एक स्थान पर समय और पूरा दिमाग लगाना होगा. घटनाओं और समाज पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी. इसके लिए डिप्लोमा नही वरन सामायिक दृष्टि चाहिए. पर ये नए खिलाडी नही जान पाते या फिर जानना नही चाहते. इन्हे तो जल्द से जल्द बड़ा पत्रकार बनना है जो किसी बड़े दंगे या चुनावों की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा हो. विज़न के बिना, केवल अपना रिज्यूमे बढाये जाने से पत्रकारिता नही आती. लेकिन कोई नही समझ पाता. ख़ुद मेरे अखबार में कई ऐसे ट्रेनी आए जो आने के बाद एक हफ्ता भी नही टिके, जागरण या भास्कर में सब एडिटर बन गये, वहा भी महीने भर से ज्यादा नही टिके और किसी और अखबार में ज्यादा पैसे पर काम करने लगे. ज्यादा पैसा और रिज्यूमे में ज्यादा संस्थान शगल सा बन गया है. इसमे केवल पत्रकारों का ही दोष नही, एक दूसरे के एम्प्लोई खींचने और तोड़ने की परंपरा मीडिया में भी चल पडी है.

आज वो नजारा मैं देख रही हू. यहाँ लड़के आपस में बतिया रहे है...अरे दिवाकर की तो एन डी टीवी में लग गयी. ट्रेनी और कवर करने भी जा रहा है. और प्रिया तो अपने लोहिया जी की पहचान के चलते भास्कर में चली गयी. बस मेरा जरा यहाँ कुछ हो जाए. फिर मामाजी ने कहा है कि अगले महीने जी न्यूज़ में करवा देंगे. उनका फ्रेंड वहा है न..यानि अब ये कह सकते हैं कि 'ये हाल है अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

1 comment:

abhishek said...

hum bhi roj aisa hi kuch jhelate hain............................................................................................ dosh hamara bhi hai,,,, hum nahi chahate hain ki jaisa salook hamare sath hamare seniors ne kiya waisa ya uska chauthai bhi hum unke saath karen ,,, natiza yahi hai ki wo 10 din main apne aap ko teeesmar khan samajhne lagate hai.