कल रात कंप्यूटर पर स्लमडॉग देखी। कुछ खास नहीं लगी। फिल्म देखते हुए सोच रही थी कि क्या देखकर इसे गोल्डन ग्लोब मिला और किस सोच के आधार पर इसे ऑस्कर मिलेगा। दरअसल फिल्म में भारतीय दर्शकों के लिए कुछ खास नहीं है। मुंबई की कमियां-मसलन वहां की गंदगी, चोरी चपाटी, रेड लाइट ऐरिया, भीख मंगवाने वालों का जाल, पुलिस की दरिंदगी, भाईगिरी सभी कुछ फिल्म में अनवरत चलता रहता है। फिल्म की कहानी तो खैर आप लोगों ने कई जगह सुनी और पढ़ी होगी। खैर हम शार्टकट में बताए देते हैं। जमाल, एक कॉल सैंटर में चायवाला, कौन बनेगी करोड़पति में एक करोड़ जीत जाता है। शो के एंकर को शक होता है और वो उसे पुलिस के हवाले कर देता है। पुलिस की पूछताछ में जमाल अपने बचपन से जवानी तक का सफर याद करता है। इसी सफर में करोड़पति में पूछ गए सभी सवालों के जवाब भी छिपे हुए हैं। कैसे जमाल उसका भाई सलीम और लतिका अपने परिजन खोते हैं। भीख मांगने वालों के गिरोह के हाथों से बचकर जमाल और सलीम आगरा भाग जाते हैं और लतिका वहीं फंसकर रेड लाइट एरिया में पहुंच जाती है। जमाल फिर लौट कर आता है और लतिका को खोज निकालता है। सलीम के हाथों इस दौैरान एक हत्या होती है और सलीम जमाल को भगा देता है। वो लतिका को जावेद भाई के हवाले कर उसके लिए काम करने लगता है। जमाल फिर लौटता है लेकिन अब लतिका जावेद की रखैल है और सलीम जावेद के लिए काम करता है। जमाल लतिका को भगाने का प्रयास करता है लेकिन सफल नहीं हो पाता। फिर वो करोड़पति खेलता है ताकि पैसा कमा सके और लतिका को पा सके। उधर लतिका को जमाल के पास भेजने के लिए सलीम जावेद को मार डालता है और जावेद के आदमी सलीम को। उधर जमाल दो करोड़ जीतता है और लतिका जमाल के पास पहुंच जाती है।
अभिनय
अभिनय के हिसाब से भी फिल्म औसत ही रही। हां, बच्चों का अभिनय अच्छा लगा। छोटे जमाल और सलीम ने बेहतरीन अभिनय किया। आगरा जाने के बाद कुछ बड़े हो चुके जमाल और सलीम चालाकी और काईयापन करते नजर आए जो उनकी उम्र के अनाथ और आवारा किशोर करते हैं। आगरा में विदेशी पर्यटकों को ढगते हुए सलीम और जमाल रोमाङ्क्षचत करने के साथ साथ कुछ गुदगुदाते भी हैं। लेकिन कॉल सेंटर में बतौर चायवाला जमाल कुछ जमा नहीं। सच बताएं हमे तो किसी भी एंगल से वो चायवाला नहीं लगा। अनिल कपूर काफी हद तक एक ईष्यालू एंकर की सफल भूूमिका निभाते नजर आए और उनके अभिनय में अमिताभ की नकल भी साफ दिखाई दे रही थी। बड़ी हो चुकी लतिका सुंदर लगी। बड़े जमाल की याददाश्त बड़ी तेज थी तभी तो वो अपनी शुरूआती जिंदगी के हर हिस्से से खोजकर एंकर के सभी सवालों के जवाब दे डालता है। फिल्म अंग्रेजी में है और कहीं कहीं कुछ हिस्से अतिवादिता के शिकार हो गए लगते हैं।
गीत संगीत
फिल्म चूंकि कंप्यूटर पर देखी थी सो गाने नहीं थे। शायद काट लिए गए थे। जय हो गाना अंत में है (इसके लिए रहमान ऑस्कर में नामांकित हुए हैं), जो अंग्रेजी और हिंदी सी लगती धुनों का मिश्रण है। रिंगा रिंगा गीत की धुन प्यारी लगती है। इस गाने में दोहरे अर्थो वाले शब्दों का प्रयोग किया गया है जिस कारण बार बार सुना नहीं जा सकता।
असल मुद्दा
अब बात असल मुद्दे की कि विदेशियों को इस फिल्म में क्या भाया और क्यों। फिल्म में एक विकासशील देश की आर्थिक राजधानी (जो देश के कई बड़े हिस्सों की कहानी बयां करती है)। अमिताभ बच्चन का भी कहना सही है कि गरीबी क्यों देखी जा रही है। फिल्म का निर्देशक भी दरअसल उसी गंदगी, गरीबी और कमियों को खासतौर पर फोकस करता है। फिल्म में आप एक नई मुंबई देखेंगे जो वहां के मध्यम वर्गीय लोग भी नहीं देख पाते होंगे। हमारे ख्याल से फिल्म के इसी विशेष पहलू को देखकर विदेशी ज्यूरी शायद अचंभित हो और फिल्म को ऑस्कर मिल जाए। लेकिन इसमें हमारी कोई उपलब्धि नहीं होगी। उपलब्धि होगी डैनी बोएल की जिन्होंने एक बड़े शहर की कुरूपता को जग जाहिर करने में सफलता प्राप्त की है।
Tuesday, January 27, 2009
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19 comments:
saartha samalochanaa hai
बहुत ही विनम्रता और क्षमा याचना के साथ कहना चाहता हूँ कि क्या आप इस बात से अवगत हैं कि आपके ये शब्द " फिल्म देखते हुए सोच रही थी कि क्या देखकर इसे गोल्डन ग्लोब मिला और किस सोच के आधार पर इसे ऑस्कर मिलेगा " दुनिया भर के फिल्मकारों और फिल्म समीक्षकों, जिन्होंने फिल्म को सराहा है , के काबिलियत पर एक सवालिया निशान है. क्या आप स्वयं को इतना सक्षम समझती हैं ?
दूसरी बात - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है , लेकिन उसी अभिव्यक्ति की सार्थकता होती है जो लोगों को ग्राह्य होता है. एक प्रश्न का उत्तर जानना चाहता हूँ- आपकी कितनी फिल्म समीक्षाएं देश (या विदेश) की किसी सम्मानित पत्र पत्रिका में छपी है ?
आशा करता हूँ की आप मेरी बात को सकारात्मक रूप से लेंगी और मैं एक संतोष जनक उत्तर पा सकूँगा और आपके लेख से उसी तरह से जुड़ सकूंगा जिस तरह जुड़कर आपने लिखा है .
सादर
वीनिताजी आपकी ये फ़िल्म समीक्षा अच्छी है। लेकिन, एक एतराज़ है। और, वो ये कि फ़िल्म आपने कम्प्यूटर पर देखी। अभी तक फ़िल्म की ओरिजनल सीडी या डीवीडी बाज़ार में नहीं आई है। इसका मतलब ये हुआ कि आपने पायरेटेड वर्ज़न देखा है। अगर आप समीक्षक है तो आपको मालूम होगा कि पायरेसी हर साल कितना नुक्सान पहुंचा रही है। उम्मीद है अगली बार आप पायरेटेड फ़िल्म नहीं देखेंगी।
bilkul sahi farmaya aapne. shayad music ke liye oscar me nominate hua hai aur mujhe ummid hai ki Rahman sahab bhi soche nahin honge ki eeski music eetani pasand aayegi gori chamri waalo ko. Awards to Gori chamadi ka influence hai. Mujhe bhi movie dekh kar bilkul aisa hi ehsash hua.
Pratab jee ke liye:
Kitane samikshak ki samiksha padh kar ham log bewkoof ban kar cinema hall se wapas laute hain. Kabhi kabhi samiksha padh kar movie chhod dete hain hum log aur baad me wo movie hit ho jaata hai. eesliye koi jaroori nahin hai ki jinaki samiksha chhapati hai unhi ki samiksha sahi hoti hai. Ye Internet ka jamana hai aur bade bade samikshak bekoof nazar aayenge aam logo ki samiksha padh kar.
अच्छा किया बोलदिया वरना हम देखने चले जाते।
फ़िल्म जैसी भी हो रहमान Oscar मिलजाए :D हमारी नेक उम्मीद।
आपसे सहमत विनीता जी, नहीं देखेगें "झोपड़ कुत्ता करोड़पति"..
्वैसे दिप्ती ्की बात भी ठीक है..
प्रताप जी मैं आपके विचारों का सम्मान करती हूं। लेकिन आपका ये पूछना कि मेरी कितनी समीक्षाएं छपी हैं, गले नहीं उतरता।
पहली बात ये कि मैंने फिल्म की समीक्षा नहीं लिखी है। मैंने तो अपनी सोच दूसरों के साथ बांटनी चाही है। न तो मैं समीक्षक हूं और न मैं फिल्मों को समीक्षा के नजरिए ये देखती हूं। रही बात दुनिया भर के समीक्षकों की काबिलियत पर सवालिया निशान की, तो भाई साहब समीक्षा फिल्म की होती है और फिल्म किसी को बुरी तो किसी को अच्छी लग सकती है। दुनिया समीक्षा करने वाले की नहीं फिल्म की काबिलियत देखती है। एक फिल्म एक समीक्षक को अच्छी और दूसरे फिल्म समीक्षक को बेकार लगी तो क्या आप किसी एक की काबिलियत पर शक करेंगे। नहीं ना, यही बात मैं आपको समझाना चाह रही हूं कि फिल्म की थीम की काबिलियत देखिए, समीक्षक की नहीं। रही बात मेरी तो मैं कोई समीक्षक तो हूं नहीं।
दूसरी बात क्या आधिकारिक समीक्षा करने के लिए कोई डिग्री या प्रमाणपत्र लेना होता है। यदि लेना पड़े तो जरा पता बता दीजिए। मैने फिल्म देखी और मुझे उसमें जो कमियां और अच्छाइयां नजर आई, मैंने उन्हें दूसरे ब्लाग साथियों के साथ बांट लिया। अरे भई ये ब्लाग जगत बना ही विचारों के आदान प्रदान के लिए है। किसी ने फिल्म के बारे में कुछ लिखा और किसी ने कुछ।
एक और बात आपने की, सक्षमता को लेकर। सक्षमता को लेकर आपके विचार क्या हैं, जरा खुलकर बता दीजिए। इतनी सक्षम तो मैं हूं कि फिल्म को देखकर अपनी राय बना सकूं। इसके लिए मुझे दुनिया भर के सम्मानित समीक्षकों की राय की जरूरत नहीं पड़ेगी। अगर ऐसा रहा तो हरेक फिल्म के लिए प्रचार की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, केवल समीक्षकों को दिखाइएं और फिल्म हिटा करा ले जाइए।
विनीता जी
मेरा आपको आहत करने का कोई इरादा ना था.
यदि मैं यह कहूं कि "कोई चीज़ मुझे अच्छी नही लगी " और यह कहूं कि "वह चीज़ अच्छी नही है". ये दो अलग अलग बातें हैं . और जब कोई व्यक्ति दूसरी बात ( "वह चीज़ अच्छी नही है") कहता है तो मन में एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ऐसी टिप्पडी करने वाले व्यक्ति की उस क्षेत्र में कितनी पकड़ है ...सक्षमता से मेरा यही तात्पर्य था.
हर उत्कृष्ट चीज का लोकप्रिय होना आवश्यक नही है ये आप भली भांति जानती हैं . या इसके उलट भी कह सकते हैं कि लोकप्रियता , गुणवत्ता का मानदंड नही है . जहाँ तक कला का प्रश्न है .
दूसरी बात जैसा कि आपने कहा " समीक्षा के लिए कोई आधिकारिक डिग्री नही लेनी पड़ती ", . फर्क सिर्फ इतना ही रहता है कि वे उस क्षेत्र से जुड़ जाते हैं और उसकी बारीकियों को समझने लगते हैं .
हर क्षेत्र में कृतियों की गुणवत्ता तय करने का एक मानदंड होता है और उसे तय करने का अधिकार कुछ लोगों को दिया जाता है जो हमारे ही बीच से होते हैं और जिनकी पकड़ उस क्षेत्र में अच्छी होती है.
आपको फिल्म अच्छी नही लगी , बहुत से और लोगों को भी अच्छी नही लगेगी. इसका मतलब यह कदापि नही है कि जो पुरस्कार फिल्म ने अर्जित किए हैं उसके योग्य नही है . और अगर कोई ऐसा कहता है तो उसे इस बात कि जानकारी अवश्य होनी चाहिए कि उन पुरस्कारों को पाने के लिए क्या योग्यता और गुणवत्ता होनी चाहिए . किस आधार पर ये पुरस्कार दिए जाते हैं .
मेरी सोच आपसे सहमत नही हो पा रही है उसके लिए क्षमा. हम दो अलग अलग व्यक्ति हैं, बहुत सम्भव है कि कई बातों पर हम एक दूसरे से सहमत ना हो पायें.
आप स्वयं कह रहीं हैं कि आप समीक्षक नहीं हैं। आपने सिर्फ अपना नजरिया लिखा है। हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। आपको भी। इसके बाद कहने के लिए कुछ नहीं बचता।
प्रताप अंकल सिर्फ़ यही कह रहे थे की कोई टी वी वाला अच्छा बता रहा है इसलिए वो अच्छी है आप काहे को उसे बुरा कह रही है .
मुंबई की गंदगी देख देख तो वैसे ही हम शर्मिंदगी महसूस करते हैं. अब और ना देखा जाएगा. हम तो निराश भये लेकिन आभार.
बड़ों की वार्ता में बच्चों को नही भाग लेना चाहिए और नटखट बच्चों को तो बिल्कुल भी नही.
यह फिल्म गलत कारणों/मकसदों से चर्चित है -मगर है यह मिलेनियम मूवी ! आस्कर तय है.
CHARCHAA CHUHAL MEn BADAL RAHI HAI, BACHAYIE....
शुक्रिया अपनी राय हम सब से बाँटने के लिए !
Manish
ek-shaam-mere-naam.blogspot.com
्वीनीता जी धन्यवाद आप ने बता दिया, मेने डऊन लोड कर के रखी थी देखने के लिये, लेकिन अब नही देखूगां.
अभी देखी नही है इसलिए कोई टिप्पणी कर पाने की अवस्था में नही हूँ पर हाँ हर व्यक्ति को अपनी राय कहने का हक है
vinneta ji , main aapke vicharo se kadapi sahmat nahi hun , maine ye movie december me dekhi thi aur mere vichar se ye saal ki umda movies me se ek hai , abhinay aur patkatha dono ke maamle me.
mujhe sandeh hai aapki filmo par tippani karne ki kshymta par.
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