Wednesday, August 13, 2008

याहू ...........तीन दिन की मौजा ही मौजा


पन्द्रह अगस्त, रक्षा बंधन और फ़िर रविवार की छुट्टी ने जनता को तीन दिन की मौज उपहार में दी हैं. हम तो बड़े ही खुश है. महीना शुरू होने से पहले ही लोग इन तीन दिनों की मौज को केश कराने का प्लान बना रहे हैं.. हमारे कई साथी (जो बाहर प्रदेशों से आकर यह काम करते है.) इन तीन दिनों का पूरा लुत्फ़ अपने परिवार के साथ बिताने के लिए आज ही गावँ कूच कर गये हैं. साथ वाले मिश्रा जी तो बुधवार की शाम को ऑफिस से ही रेलवे स्टेशन पहुँच गये. बैग्स सुबह अपने साथ ऑफिस ले गये थे, वही से निकल लिए. ... कहने लगे. कौन समय ख़राब करे गुरूवार की छुट्टी ले ली है और अब रविवार की रात को ही लौटेंगे. यानि एक दिन की छुट्टी पर चार छुट्टी का बोनस. बाय वन गेट फोर.....
ये रिवाज़ एनसीआर की छोटी बड़ी सभी कंपनिओं में हो गया हैं. ज्यादातर कर्मचारी बाहर से आए होते है जो त्योहारों पर खूंटे से छूटे बैल की तरह अपने गावं की ओर भागते हैं. ओर काम करने के लिए बेचारे दिल्ली वाले यानि लोकल रह जाते है. हालाँकि बाहर प्रदेशों से आए लोग रिटेल में छुट्टी नही करते...वो एक या डेढ़ हफ्ते की थोक भावः की छुट्टी करते है. और लोकल लोग रिटेल में छुट्टी करते है. आज मामा के यहाँ जाना है. आज बिजली का बिल जमा करना था. कोई सगा बीमार था, उसे देखने अस्पताल चला गया...घर की मरम्मत करानी है....आउट साइडर अपनी या बहन की शादी, होली दीवाली या छठ पर ही घर जाते है और बाकी दिनों वो कंपनी के प्रति पूरी वफादारी दिखाते है. ...
ये तो हुई छुट्टी की बात... अब बात करते हैं माहौल की....छुट्टी की रोमानियत मन में ऐसी हैं कि माहौल भी रंगा हुआ नज़र आ रहा है. बाज़ार राखिओं और पतंगों से पटे पड़े है. औरतें राखियों और मर्द-बच्चे पतंगों पर टूटे पड़े हैं. जहा देखो आज़ादी के गीत और रक्षा बंधन के गाने लाउड स्पीकरों पर जोर जोर से बजाये जा रहे है. कमाल की बात है एक दिन आज़ादी का और दूसरा दिन बंधन का. सावन की खुमारी भी सिर चढ़कर बोल रही है. क्या करें मौसम भी तो मजेदार हो गया है.
सड़कों पर बिकती राखियाँ और आसमान में उडती पतंगे एक अजीब सा रोमांच पैदा कर रही है. चाहे पतंग उडानी ना आती हो लेकिन कभी भी जब सामने कोई कटी पतंग उडती हुई नज़र आती है तो हाथ अपने आप ही एकबारगी उसे लपकने के लिए उठ जाते है. बच्चे लम्बी लम्बी झाडियाँ लिए पतंग लूटने को भागे फ़िर रहे है. हाथ में झाडी और पीठ पर लूटी हुई पतंगों का ढेर ....सच किसी जंग में जा रहे योद्धा की तरह महसूस करते होंगे. पिंकू, सोनू मोनू, बबलू को कल के लिए तैयारी भी तो करनी है...पतंगों के पेंच बांधे जा रहे होंगे. चर्खिया तैयार है और चर्खिया लेकर खड़ी होने के लिए छोटी बहन को भी राज़ी कर लिया है. कल छत पर ही खाना पीना होगा जोरदार हंगामा होगा. खूब गाने बजेंगे और सारे दिन पतंग उडाएंगे.. किसी की पतंग काटी तो आवाज़ आएगी .. आई बोट्टे- वो काटा- फ़िर पतंग पर आधारित कोई फिल्मी गाना बजेगा और सीटी का शोर..... उधर पापा सोच रहे है, सारा दिन आराम करेंगे. खाने पीने में भी कुछ स्पेशल बनवा लेंगे. एक आध पतंग भी उडा लेंगे. बच्चे भी खुश हो जायेंगे और बीवी भी. उधर बीवी जी तो अगले दिन की तैयारी में जुटी है. कौन सी राखी लूँ भाई के लिए. ये सुनहरी, ये मेटल की या ये चंदन की...भइया ठीक रेट लगाओ...पाँच लेनी है..... मिठाई क्या लूँ... साड़ी तो आ गयी ब्लाउस कब आएगा. ओह मेंहदी भी लगवानी है.
ये क्या...सबके प्लान बन रहे हैं और हम हैं कि अभी तक सोचा ही नही क्या करना है. चलिए अब हम भी कुछ पालन बनते है....आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना और हेप्पी राखी....

रूपा नाम है उसका...

रंग साफ़, आँखे बड़ी बड़ी, नाक ठीक ठाक और बाल भी करीने से बंधे हुए. काम करने में तेज़, झाडू, कटका, बर्तन, कपड़े और दूसरे घर के काम. सभी कुछ मिनटों में और मुस्कुराते हुए निपटा डालती है. हाँ, करते हुए उसका ध्यान टीवी की तरफ़ जरूर रहता है. सीरियल नही देखती, बल्कि फिल्मी गाने ( नई फ़िल्मों के) पसंद हैं उसको. अब उसकी उम्र पर नजर डालिए- महज़ ग्यारह साल, दूसरी क्लास तक पड़ी थी फ़िर माँ ने अपने साथ घरो में काम करने के लिए लगा दिया. पड़ोसी के घर आती है रोज. फ़िर सन्डे को मेरे घर भी आ जाती है. हम ऑफिस जाने वाले सन्डे को ही ठीक तरह सफाई कर पाते है. सो मैं उसे बुला लेती हू मदद के लिए. दरअसल मेरा आठ महीने का बेटा उसे बहुत पसंद करता है. वो भी बड़े ही मन के साथ उसे खिलाती है उसे. कभी कभी तो उसके खिलौनों के साथ वो भी खेलती है. धीरे धीरे वो मुझसे खुल गयी तो मैंने उससे बहुत कुछ पूछा.... उसके पाच भाई बहन हैं, पापा दिहाडी मजदूर हैं और मम्मी घरो में काम करती है. अब वो भी करने लगी है, पड़ना चाहती थी पर पैसे नही है पड़ने के लिए. कपड़े भी कई घरो से मिल जाते है. सबसे छोटी बहन ८ महीने की है. जब दो महीने की थी तभी से माँ उसे घर पर रूपा के हवाले करके काम पर चली जती थी. बहन अब उसे ही माँ समझती है. दो भाई सड़क किनारे भुट्टे बेचते है और शाम को वो भी हाथ बंटाने चली जाती है. एक कमरे के मकान में रहते है. पापा बाहर सोते हैं. उसे अपनी दिनचर्या बताई. सुबह चार बजे उठना...सबके लिए खाना बनाना, छोटी बहन को नहलाना फ़िर भाइयों को स्कूल भेजना. (भाई स्कूल से आने के बाद भुट्टे बेचते हैं.) फ़िर खाना खा कर माँ के साथ काम पर निकलना. तीन बजे तक पाँच घरो का काम निपटाती है. फ़िर घर जाकर माँ के साथ खाना खाती है (वैसे कई घरों में कुछ ना कुछ खाने को मिल जाता है. ) चार बजे छोटी बहन (आजकल इसे सात साल की दूसरी बहन संभालती है.) को साथ लेकर भाइयों के साथ भुट्टे बेचना. रात नौ बजे तक ये काम चलता है. फ़िर घर आकर माँ के साथ खाना बनवाने में मदद करती है फ़िर बिस्तर पर जाती है. मुझे अचम्भा होता है इस जरा से लड़की की हिम्मत देखकर ......इतनी कम उम्र और इतना काम ....इस उम्र में तो बच्चे पढ़ते हैं, खेलते हैं और रंग बिरंगे सपने देखते हैं.

उसे सजने और टीवी देखने का शौक है....में अपने पुराने सूट उसे दे देती हूँ और अपनी कभी कभी उसे साप्ताहिक बाजार से टोप्स कड़े, और क्लिप भी खरीद देती हूँ.उसे बड़ा अच्छा लगता है. जब भी वो मेरे घर में काम करती है तो असल में काम तो मैं करती हूँ और मेरी मदद वो करती है. जैसे रूपा कपडे सुखा दे, डस्टिंग कर दे, दूध उबाल दे या मन्नू के साथ खेल ले.. उस दौरान टीवी चलता रहता है. पता नही क्यों उससे काम कराने को दिल नही मानता. उस दिन वो बड़ी खुश रहती है और सन्डे मनाती है. घर जाते समय में उसके हाथ में बीस का नोट रखती हूँ जो उसकी माँ भी उससे नही मागती (एक दिन तो बिटिया मौज कर ले)
जब मैंने पूछा की पढ़ाई के लिए पैसे क्यों नही हैं... उसने बताया कि पापा उसकी शादी के लिए पैसे जमा कर रहे है न तो पैसे नही बचते... पर मैं हिन्दी पढ़ लेती हू...

उसका सपना है कि किसी दिन सिनेमा हाल मैं जाकर फ़िल्म देखे, जींस और टॉप पहने और किसी बड़े से होटल में खाना खाए. वो चाउमीन और बर्गर खाना चाहती है, नए तरीके से बाल कटवाना चाहती है. वो नए कपड़े पहन कर हमउम्र लड़किओं के साथ खेलना चाहती है. उनकी तरह स्कूल ड्रेस में पढने जाना चाहती है. वो चाहती है कि उसके जन्मदिन पर भी केक काटा जाए...लेकिन वो जानती है कि इन सपनो को पूरा करने के लिए जो समय और पैसा चाहिए वो उसके घरवालों के पास नही है. कल जब उसकी शादी हो जायेगी तब भी वो कही और घरों में काम करेगी और आज कि छोटी रूपा तब कामवाली बाई बन जायेगी.
क्या ऐसी बच्चियां जन्म के साथ ही बड़ी हो जाती हैं. क्या इनका जन्म ही काम और शादी के लिए हुआ है. क्या इनके सपने कभी पूरे नही हो सकते. क्या उसका भविष्य भी दूसरी कामवालियों की तरह हो जायेगा. गुलाब की तरह खिलती एक लड़की कैसे एक कामवाली में तब्दील हो सकती है.

क्या आपके पास कोई जवाब है. इन सवालों का..... हो तो जरा मुझे भी बता दीजिये. मैं बहुत परेशान हू......

Monday, August 11, 2008

ट्रेफिक पुलिस के ये सिपाही

जिस रास्ते से हम ऑफिस जाते है, वहा पांडव नगर पुलिस चौकी से कुछ ही मीटर की दूरी पर एक ट्रक (बहुत बड़ा ) बीच रास्ते में खराब खड़ा हैं, ये बात करीब तीन दिन पहले की है. इस ट्रक के कारण पूरा ट्रेफिक अस्त व्यस्त है लेकिन किसी को इसकी परवाह नही. रेड लाइट से जरा सा आगे खिसकने पर सौ रुपये का चालान काटने वाले ट्रेफिक पुलिस के सिपाही इस ट्रक को हटाने में जल्दीबाजी नही दिखा रहे. क्युकि यहाँ पैसा नही मिलने वाला. वाह रे सरकारी विभाग. ऐसा ही कुछ गोलमाल मयूर विहार और नॉएडा की क्रॉसिंग पर दीखता है. यहाँ ट्रेफिक पुलिस के सिपाही छिप कर खड़े होते है और रेड लाइट पार करने वालो को पकड़ते है. लेकिन जब रेड लाइट ख़राब होती है तो कोई सिपाही नजर नही आता अस्त व्यस्त ट्रेफिक को दुरुस्त करने के लिए. कारण यहाँ काम है लेकिन माल खाने की जुगत नही है. समझ नही आता कि हर कोई माल खाने पर उतारू क्यों है. क्या माल खाए बिना अपने रुटीन वर्क भी पूरे नही किए जा सकते. क्यों ये लोग इतने बेशरम हो गये है कि बिना माल खाए इनका दिन ठीक नही गुजरता. आख़िर क्यों जनता ट्रफिक नियम तोड़ने से डरती नही है. रेड लाइट पार करने पर सौ रुपये का जुरमाना है, लेकिन जब पचास रुपये इनकी जेब में जायेंगे तो ये चालान क्यों बनायेंगे. वाहन वाले को भी पचास का फायदा और इन्नी भी जेब गरम . दोनों एक दूसरे की सुविधा का ख्याल रखते हुए देश सेवा कर रहे है. यहाँ सेटिंग चलती है, जैसे हफ्ता वसूली करने वाले गुंडे इलाका बांटे है, वैसे ही ये सिपाही भी इलाका बाँट लेते है.

चलिए सुनते है उनके बीच की कुछ बातचीत.....
एक - आज क्या हुआ, तेरा मुंह क्यों उतरा हुआ है...
दो - कुछ नही यार.. लगता है आज साले किसी को जल्दी नही है. कोई लाइट पार नही कर रहा, बोहनी तक नही हुई.
एक - तो मेरे इलाके में आ जा, यहाँ तो बड़ी भीड़ होती है, कोई न कोई तो फंस ही जायेगा.
दो - नही यार ये रोज रोज कि उधारी ठीक नही...सोच रहा हूँ, रेड लाइट का टाइम बढ़ा दूँ.
एक - हां मेरे यहाँ भी ग्रीन तो दस सेकेंड की है और रेड दो मिनट की कर दी है. अब रोज कमाई होती है.
दो - हां यार में भी सोच रहा हूँ कि पीली लाइट में भी एक दो को फांस लिया करूँ.
एक - वैसे आजकल साले सब होशयार हो गये है, हेलमेट पहन के चलते है, फैशन की किसी को परवाह नही. और तो और कागज़ भी पूरे मिल जाते है और पोलुशन भी करा लेते है.
दो - अब ऐसे में तू ही बता, हम गरीबो का घर कहाँ से चले. कल ही दो बाइक वालों की हलकी सी टक्कर हो गयी, में तो पहुँच गया हिसाब लेने. वो तो कमबख्त आपस में सुलह करके भाग निकलना चाह रहे थे. पर मुझे तो अपना हिसाब लेना ही था. कर दिया फ़ोन १०० नबर पे. गाडियाँ थाने पहुंचाई और उन्हें भी लेकर चला. थाने में. पाँच सौ एक से लिए और पाँच सौ दूसरे से. तब कही जाकर गाडिया उनको दिलाई. उनसे पाँच सौ थाने के स्टाफ को भी दिलाये.
एक - अरे इन लोगों को जरा भी लिहाज़ नही है. हम भी इनका ही तो भला करते है. चालान काटा तो पूरे पैसे देने होंगे और नही काटा तो कम में ही बात बन जायेगी. गणित नही आता सच इन लोगो को. दुनियादारी तो सच में सरकारी आदमी को ही आती है.
दो - चल मेरा पीक टाइम हो रहा है...आज जाम भी तगड़ा है....कुछ जुगाड़ कर लू जरा...
एक - ओके बाय बाय.

Friday, August 8, 2008

बरसात के दिन आए...

दिल्ली में आज सुबह से ही बरसात हो रही है. दिल्ली ही नही इससे जुड़े आस पास के इलाकों में भी बादल मेहरबान है. यूँ तो सभी को ये मौसम अच्छा लगता है, भीगा भीगा समां (भले ही बीमारी हो जाए), चारों और हरियाली (कूडे को मत देखिये), टिप टिप बहता पानी (सड़क पर भरे समंदर को नज़रअंदाज कर दें ) , घर में बनते गरमागरम पकोडे और चाय (बशर्ते मैडम का मूड ठीक हो ), से सारी बातें बरसात को सार्थक करती है और इसीलिए बरसात लोगो को अच्छी लगती है. लेकिन यही बरसात ऑफिस जाने वालो को खलनायिका लगती है. कमबख्त छुट्टी करवा देती है या बीमार कर डालती है. कई की माशुकाएं तो इतनी रोमांटिक हो जाती है कि आशिक को भी मजबूरन बहाना बना कर ऑफिस से बंक मारनी पड़ती है. रात भर से हो रही बरसात के चलते ऑफिस जाने वाले इस कदर डर जाते है कि मुह अंधेरे तैयार हो जाते है, इस जुगाड़ में कि जैसे ही रुकेगी तो निकल पड़ेंगे. कुछ लोग तो इस चक्कर में रैन कोट पहने घूमते है. कि कहीं पहनने में समय ख़राब न हो. लेकिन बादल मरे इतने बेईमान कि यहाँ थम गये, आप निकले और अगले मोड़ पर कमबख्त बरस पड़े आप पर. कहा तक बचोगे भाई.

ऐसे में रैन कोट और बरसाती कुछ काम नही आती. सिर सूखा बच गया तो पैर भीग जायेंगे और पैर बच गये तो सिर भीग जाएगा. बस से आने जाने वालो का तो और बुरा हाल है. बस स्टाप पर बाइक और स्कूटर वालो का जमघट रहता है ऐसे में खुले में बस का इन्तजार करना पड़े तो पता चले. छाते ऐसे में आपदा प्रबंधन तो करते हैं लेकिन पूरा नही बचा पते. कमर से नीचे का हिस्सा तर हो जाएगा. बस से उतरने के बाद भी भीगना पड़ता है.

बाइक वालो के साथ कई तरह की दिक्कते होती हैं. आस पास से निकलने वाले जानबूझकर पानी की बौछार आप पर मार कर जाएंगे और आप कुछ नही कर पायेंगे. किसी दिन लगा कि बरसात होने वाली है, आप रैन कोट पहन कर निकल लिए और बरसात दगा दे गयी अब सारे रास्ते मूर्खों कि तरह रैन कोट पहने चलो.


किस्सा रवि का. ..
रेवाडी से आने वाले हमारे सहकर्मी रवि प्रकाश रोज नौ बजे (पाँच बजे घर से निकलने पर ) ऑफिस पहुँचते हैं. रोज तो अपने दोस्त के साथ उनके वाहन से आते है तो २ घंटे का समय बच जाता है. लेकिन जिस दिन दोस्त नही आ पता, रवि प्रकाश को ऑफिस आने के लिए नेट ४ घंटे लगते है. रेवाडी से धौला कुँआ फिर महारानी बागः और फिर नॉएडा. बेचारे घर से पाँच बजे निकलते है और नौ बजे ऑफिस पहुचते है. आज हमने सोचा की रवि मिश्रा तो ऑफिस नही आ पाएंगे लेकिन आश्चर्य जनक रूप से रवि मिश्रा आठ बजे ही ऑफिस आ गये. हमने पूछा तो उन्होंने बताया आज सडको पर बारिश के चलते भीड़ कम थी तो जल्दी पहुँच गये. उन्होंने बताया कि वो रेन कोट पहन कर बस में आए तो हमारी हँसी छूट गयी. बोले कि ट्रिक काम कर गयी. बारिश के दिनों में बसों में खिड़की के पास की सीट पर कोई नही बैठता क्युकि वह पानी आता है. लेकिन में रेन कोट पहन कर उसी गीली सीट शान से बैठा. रोज तो लटकते हुए आते है, ये बरसात की मेहरबानी थी कि आज कई महीनो बाद सीट मिली. कहने लगे कि लोग मुझे हैरान होकर देख तो रहे थे लेकिन आज मैंने पूरा मज़ा लिया. बारिश में खूब चला और टाइम से ऑफिस भी पहुँचा. मतलब की बारिश से हमारे रवि भाई को फायदा हो गया. चलो कुछ तो अच्छा हुआ.

नोट--आज का लेख जल्दबाजी में बरसात का मौका देख कर लिखा गया लेख है. बस अपने अनुभव आपको बताने थे. और रवि भाई का प्रकरण डालना था. त्रुटि हो गयी हो तो माफ़ करे. यही अपील बरसात से भी है

Saturday, August 2, 2008

चंदा की रोटी...

चंदा जैसी रोटी को खाने की जिद पाले है.

इंसां लार टपकती कितनी लंबी लीभ निकाले है.

बिजली के नंगे तारों का खौफ दिलो में बैठा है.

इस कीमत पर ही आंखों ने देखे आज उजाले हैं.

नर्म रोटिया सिर्फ़ अमीरों के हिस्से में आयी हैं.

गुरबत के चूल्हों पर तो बस पत्थर गये उछाले हैं.

इमां की कश्ती पर बैठे कुछ ही मांझी ऐसे हैं.

दौलत के बहते दरिया में जो पतवार संभाले हैं.

पैदा होते हम कागज़ के पैर लिए तो अच्छा था.

इस दुनिया में सब कागज पर सड़क बनाने वाले हैं.

इंसां की काली करतूतों से गाफिल यूँ लगता है.

आने वाले दिन मावस की रातों से भी काले हैं.

विशाल गाफिल से साभार.