Monday, August 11, 2008

ट्रेफिक पुलिस के ये सिपाही

जिस रास्ते से हम ऑफिस जाते है, वहा पांडव नगर पुलिस चौकी से कुछ ही मीटर की दूरी पर एक ट्रक (बहुत बड़ा ) बीच रास्ते में खराब खड़ा हैं, ये बात करीब तीन दिन पहले की है. इस ट्रक के कारण पूरा ट्रेफिक अस्त व्यस्त है लेकिन किसी को इसकी परवाह नही. रेड लाइट से जरा सा आगे खिसकने पर सौ रुपये का चालान काटने वाले ट्रेफिक पुलिस के सिपाही इस ट्रक को हटाने में जल्दीबाजी नही दिखा रहे. क्युकि यहाँ पैसा नही मिलने वाला. वाह रे सरकारी विभाग. ऐसा ही कुछ गोलमाल मयूर विहार और नॉएडा की क्रॉसिंग पर दीखता है. यहाँ ट्रेफिक पुलिस के सिपाही छिप कर खड़े होते है और रेड लाइट पार करने वालो को पकड़ते है. लेकिन जब रेड लाइट ख़राब होती है तो कोई सिपाही नजर नही आता अस्त व्यस्त ट्रेफिक को दुरुस्त करने के लिए. कारण यहाँ काम है लेकिन माल खाने की जुगत नही है. समझ नही आता कि हर कोई माल खाने पर उतारू क्यों है. क्या माल खाए बिना अपने रुटीन वर्क भी पूरे नही किए जा सकते. क्यों ये लोग इतने बेशरम हो गये है कि बिना माल खाए इनका दिन ठीक नही गुजरता. आख़िर क्यों जनता ट्रफिक नियम तोड़ने से डरती नही है. रेड लाइट पार करने पर सौ रुपये का जुरमाना है, लेकिन जब पचास रुपये इनकी जेब में जायेंगे तो ये चालान क्यों बनायेंगे. वाहन वाले को भी पचास का फायदा और इन्नी भी जेब गरम . दोनों एक दूसरे की सुविधा का ख्याल रखते हुए देश सेवा कर रहे है. यहाँ सेटिंग चलती है, जैसे हफ्ता वसूली करने वाले गुंडे इलाका बांटे है, वैसे ही ये सिपाही भी इलाका बाँट लेते है.

चलिए सुनते है उनके बीच की कुछ बातचीत.....
एक - आज क्या हुआ, तेरा मुंह क्यों उतरा हुआ है...
दो - कुछ नही यार.. लगता है आज साले किसी को जल्दी नही है. कोई लाइट पार नही कर रहा, बोहनी तक नही हुई.
एक - तो मेरे इलाके में आ जा, यहाँ तो बड़ी भीड़ होती है, कोई न कोई तो फंस ही जायेगा.
दो - नही यार ये रोज रोज कि उधारी ठीक नही...सोच रहा हूँ, रेड लाइट का टाइम बढ़ा दूँ.
एक - हां मेरे यहाँ भी ग्रीन तो दस सेकेंड की है और रेड दो मिनट की कर दी है. अब रोज कमाई होती है.
दो - हां यार में भी सोच रहा हूँ कि पीली लाइट में भी एक दो को फांस लिया करूँ.
एक - वैसे आजकल साले सब होशयार हो गये है, हेलमेट पहन के चलते है, फैशन की किसी को परवाह नही. और तो और कागज़ भी पूरे मिल जाते है और पोलुशन भी करा लेते है.
दो - अब ऐसे में तू ही बता, हम गरीबो का घर कहाँ से चले. कल ही दो बाइक वालों की हलकी सी टक्कर हो गयी, में तो पहुँच गया हिसाब लेने. वो तो कमबख्त आपस में सुलह करके भाग निकलना चाह रहे थे. पर मुझे तो अपना हिसाब लेना ही था. कर दिया फ़ोन १०० नबर पे. गाडियाँ थाने पहुंचाई और उन्हें भी लेकर चला. थाने में. पाँच सौ एक से लिए और पाँच सौ दूसरे से. तब कही जाकर गाडिया उनको दिलाई. उनसे पाँच सौ थाने के स्टाफ को भी दिलाये.
एक - अरे इन लोगों को जरा भी लिहाज़ नही है. हम भी इनका ही तो भला करते है. चालान काटा तो पूरे पैसे देने होंगे और नही काटा तो कम में ही बात बन जायेगी. गणित नही आता सच इन लोगो को. दुनियादारी तो सच में सरकारी आदमी को ही आती है.
दो - चल मेरा पीक टाइम हो रहा है...आज जाम भी तगड़ा है....कुछ जुगाड़ कर लू जरा...
एक - ओके बाय बाय.

5 comments:

राज भाटिय़ा said...

विनीता जी चाहे ज्यादा पेसे दो चालान का जुर्माना भरो,यह खुदी तंग करना छोड देगे, अगर यह नाजाय्ज तंग करते हे तो इन पर मुकदमा ठोक दो,जनता मे जब तक जग्रुकता नही आयेगी यह हमे ऎसे ही तंग करेगे.
आप का लेख ओर लिखने का ढग बहुत अच्छा हे, धन्यवाद

डॉ .अनुराग said...

आप जानती है खास चौराहे पे ट्रांसफर के लिए भी रिश्वत दी जाती है......अच्छा लेख है.....

नीरज गोस्वामी said...

रोचक पोस्ट है आपकी...दिलचस्प अंदाज है लेखन का...बधाई
नीरज

Udan Tashtari said...

अफसोसजनक स्थितियाँ....अच्छा लेख है.....बहुत आभार.

Anonymous said...

अब से पैदल चला करेंगे

ससुरे तब भी लूट लेंगे … उनकी बातों से लगता है :)