जब से भारत में कोरपोरेट की आंधी आयी है, तब से हर ऑफिस की शान और आन बढ गयी है. इसी क्रम मैं हमारे ऑफिस में भी कोरपोरेट का रंग चढा और हमारा ऑफिस भी हाईटेक हो गया. हम ठहरे कलमकार जीव. कलम घिसते थे, फिर कंप्यूटर पर की बोर्ड बजाने लगे और अब लेपटोप पर उंगलियां फिरातें है. जमाना आगे बढ रहा है ना, सबका काया कल्प होना चाहिए. तो हमारा ऑफिस भो बदल गया. नई बिल्डिंग, नया फर्नीचर ( गद्दे इतने बड़े जिसपर बैठकर आदमी चूहा नजर आए)., कांच की दीवारें, लिफ्ट, शानदार लाइटिंग, गेस्ट रूम्स कैंटीन (गाने सुनते हुए खाइए.). मतलब हर चीज बिंदास. लेकिन इन सारे सुविधाओं के साथ एक बहुत बड़ी असुविधा भी चली आई.
उस हाईटेक बला का नाम है थम्ब डिटेक्टर यानि वो इलेक्ट्रोनिक सुरक्षा प्रणाली जो अंगूठे की छाप लेकर ही दरवाजा खोलती है. इसे थम्ब स्केनर भी कहते है. हमारे मालिको को ये पसंद थी लिहाजा आनन् फानन में सभी के अंगूठों के निशान लिए गये. ये निशान देते हुए दिमाग ने सोचा कि हम पड़े लिखे पत्रकार बिरादरी के लोग अंगूठा लगा रहे हैं या अपने निरक्षर होने का सबूत दे रहे है. खैर अंगूठा लगाया और 'भिगोया, धोया और हो गया' वाली स्टाइल में वेरीफाई हो गया. असल परेशानी तो मशीने लगने के साथ शुरू हुई. ये कमबख्त अंगूठा पराया हो गया. ऑफिस में घुसने से पहले गेट पर लगी मशीन द्रोणाचार्य की तरह अंगूठा मांगती और हम अंगूठा दे दे कर परेशान हो जाते लेल्किन मरी मशीन है कि बार बार कहती एक्सेस डिनाइड. अब बिना अंगूठा जांचे मशीन गेट नही खोलेगी और हम ऑफिस में नही घुस पाएंगे. अब करो किसी और भलेमानुस का इन्तजार जो अपने अंगूठे के दान से हमें अंदर धकेल सके. कभी कभी तो स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती जब दूसरे महानुभाव का भी अंगूठा नकार दिया जाता और मशीन किसी मधुबाला कि तरह मनवांछित का अंगूठा लेने से पहले गेट नही खोलेंगी वाली मुद्रा में रूठी रहती, हम भौचक से गेट पर खड़े रहते और सोचते कि यहाँ आदमी से ज्यादा औकात उसके अंगूठे को दे दी गयी है. कभी कभी बाथरूम गये तो वापिस लौटने में डर लगता. मशीन रूठ गयी तो फ़िर कांच बजा बजा कर अन्दर के लोगो से गेट खोलने की गुहार करनी पड़ेगी. राहत की बात ये थी ही कांच की आर पार दिखाई देता है.
ज्यादा परेशानी ये कि मशीन ऑफिस के हर दरवाजे (बाथरूम और कैंटीन को छोड़कर) पर सीना चौडा किए खड़ी थी. किसी भी काम से कही भी जाईये और इस मशीन से लड़िये. कही ये आपका अंगूठा स्वीकार कर लेगी और कही पर बेशर्मी से कह देगी एक्सेस डिनाइड. ये एक्सेस डिनाइड हम पर हावी होता जा रहा था. लगता था जिन्दगी एक्सेस डिनाइड होती जा रही है. रोज नई नई तरकीब से अंगूठा लगते और हार जाते.
दिल को तसल्ली देने वाली बात यही थी कि हमारे मालिक और बड़े अफसर भी इस मशीन से उतने ही, बल्कि हमसे कुछ ज्यादा ही त्रस्त दिखे. मशीन उस वामपंथी मजदूर की तरह थी जो मालिको का हाथ हो या अंगूठा स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझती थी. सच बड़ा अजीब, या कहे कि सकून सा लगता था जब बड़े अफसर या मालिक मशीन को अंगूठा दीखते और मशीन उन्हें कहती एक्सेस डिनाइड. मालिक छिड़कर फिर अंगूठा दबाते और इस बार जरा जोर से. लेकिन मशीन मालिक और मजदूर सब बराबर कि मुद्रा में बेखबर रहती. तब मालिको को भी किसी छोटानुभाव की मदद लेनी पड़ती. मदद लेने वाला तो खेर आदत के मुताबिक भूल जाता लेकिन मदद देने वाला कई दिनों तक इस मदद की चर्चा करके लोगो की वाहवाही लूटता. सच अपने ही ऑफिस में बेगाने हो गये है, कोरपोरेट कि दुनिया में अनजाने हो गये हैं. कभी कभी जब मशीन रूठ जाती है तो अंगूठा आड़ा तिरछा और उल्टा लगा कर देखते हैं, खुंदक में आकर कई बार तो पैर का अंगूठा लगाने का विचार भी किया लेकिन शिस्टाचार के चलते ऐसे ना कर सके. कभी कभी जिस दिन मशीन उदार मन से परमिशन ग्रांटेड कहती है तो लगता है कि ऑफिस में घुसने की नही बल्कि जीने की परमिशन मिल गयी.
पिछले दिनों चर्चा हुई कि क्यों न अंगूठे की बजाय सभी के गलो में इलेक्ट्रोनिक कार्ड टांग दिए जाए. कार्ड मशीन से लगाओ और अंदर जाओ. लेकिन कुछ बड़े लोगो को ये सुझाव पसंद नही आया कि वो गले में पट्टा डाले घूमे. वैसे भी गले में कम्पनी के नाम का पट्टा डाले कई लोग बसों और मेट्रो में दिख जाते है. लगता कि घर में घुसने के लिए भी कार्ड लगाते करते होंगे.
फिलहाल मशीन का रूठना और मनाना जारी है, उसकी दया हो तो अन्दर जाते है और उसकी दया न हो तो अंगूठा और मुहं दोनों लटकाए किसी के आने का इन्तजार रहाता है. कोई आए तो ले जाए, हमारी लाख दुआये पाये.
Thursday, July 3, 2008
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1 comment:
बहुत सुंदर
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