Wednesday, July 9, 2008
समीर भाई का बचपन...
समीर बोले तो हवा का झोंका....कुश के साथ कोंफी पीने वाले लोग वाकई बेहतरीन लिखते हैं. रंजू जी, समीर भाई. का लेखन शानदार है. समीर भाई काम के साथ साथ इतना वक्त कैसे निकाल लेते है, समझ में नही आता. हम तो चाह कर भी सामंजस्य नही बिठा पाते. कोंफी के दौरान इनकी मस्ती देखकर कुश के साथ कोंफी पीने की इच्छा कर रही है. वैसे में कोंफी की शौकीन तो नही पर ऐसी वार्ताओं का मोह कौन छोड़ देगा... कुश भी खासे दिलचस्प इंसान लगे. ..खेर... सचमुच समीर भाई का बचपन शानदार रहा. कभी कभी लगता है कि गावं में बड़े हुए लोगो का बचपन ज्यादा मस्ती और मजे वाला होता है, हम तो शहर के बच्चे पता ही नही चला कब बड़े हो गये. उनके बचपन के वाक़ये इतने मजेदार लगे कि एक मन किया कि काश में उनकी छोटी बहन होती तो बचपन में उनका सानिध्य मिलता और में भी ये मस्ती कर पाती. वैसे मस्ती तो हमने भी खूब की हैं पर वैसी नही जो समीर भाई ने की. . ..अगली पोस्ट में अपनी कुछ बचपन की यादों को लिखने की कोशिश करेंगे. ..सुन रहे हैं क्या समीर भाई...
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12:23 AM
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9 comments:
शुक्रिया :) :)
बिल्कुल सुन रहा हूँ...इतना भी रंज कैसा. हम तो अभी भी हर रोज मस्ती में ही गुजार देते हैं, अभी भी देर कहाँ हुई है-अब से हो जाओ छोटी बहन.
लिखो लिखो! इन्तजार करते हैं बचपन की यादें सुनने का.
शुक्रिया बड़े भैया
क्या शुक्रिया? विनीता जी जरा बहन भाई की नोंक-झोंक होने दो। वरना लगेगा कि नाटकीय मोहब्बत दिखा रहे हैं।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है..
abhi unhone kai raj aor apne computer me dafan kar rakhe hai...jab ve khulege to ..pata laga ki ve vakai....jabardat insan hai....
वाह जी वाह समीर जी, ये भी खूब रही।
कुछ बकलमखुद ध्यान आ रहा है या नहीं ?
अब हमारा बीता कल विनिता ने इतना पसंद किया है तो अजित भाई, बकलमखुद के लिए हिम्मत बँध रही है. जरुर, जल्द ही शुरु करते है. एक पाठक तो सुनिश्चित है ’विनिता’.
दिनेश भाई, यह नोंक झोंक तो चलती ही रहेगी न अब..अभी क्या जल्दी है. :)
अनुराग तो मानो अंतर्यामी हैं..बस, दिल जीत गये हमारा..क्या भांपन क्षमता है, वाह!!
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