Wednesday, July 30, 2008

अरे ये क्या हुआ....

कुछ दिनों पहले शनि देव जी की कृपा से हमारा पैर टूट गया. बच्चे (आठ माह के हो गये हैं हमारे मन) को लेकर सीढ़ी से उतर रहे थे कि उसने छलाँग (कूदने और उछलने में माहिर, शायद सर्कस में करियर बनाएगा.) लगा दी. हम घबरा कर उसे बचाने के चक्कर में अपनी टांग तुडा बैठे और भाई साहब को चोट तो क्या खंरोच तक नही आई. और फिर भी सब उनके बारे में इस तरह चिंता कर रहे थे जैसे उन्हें बहुत चोट लगी हो. खेर हमें अस्पताल ले जाया गया और वहां घोषणा हुई कि पैर में फ्रेक्चर है उफ़ हो गयी सप्ताह भर की छुट्टी. डर के मारे फीवर भी आ गया. दरअसल ये फीवर टांग टूटने के चलते नही आया, ऑफिस की छुट्टी के चक्कर में आया. डॉक्टर ने सप्ताह भर का आराम की हिदायत , प्लास्टर और दो दर्जन गोलियां गिफ्ट में दे दीं. जी तो आया कि उसका पैर तोड़ दू लेकिन फिर मन मसोस लिया.
खेर ये आराम की हिदायत बहुत महँगी और तकलीफदेय रही. घर पर मेहमान आते, हल चाल पूछते, चाय शाई पीते और मुफ्त की सलाह देकर चले जाते. हां जाते हुए मन भाई साहा को पैसे जरूर देकर जाते. टांग हमारी टूटी और मन भाई साहब का बैंक बैलेंस बढ़ रहा था. सास ससुर , जेठ जेठानी, मित्रजन, पड़ोसी माभी आए और गये. हम उन्हें अपने गिरने का सिलसिलेवार और रता रटाया किस्सा सुनाते, पति महाशय चाय बनाते और पिलाते rahate. मेहमान किस्सा सुनते हुए चाय पीते और सलाह देते. अब आराम करो, ज्यादा चलोफिरो नही, फला फला दवाई खाओ, जडी बूटी खाओ हमने भी खाई थी. जल्द ठीक हो गये. तुम भी खाओ. पैर कि मालिश करो, ऐसे बेठो, वैसे बेठो. पति तो नसीहत मिलती, इसे आराम कराओ, बेचारी से काम मत कराना. फिर मन को प्यार करते और उसे पैसे देकर चले जाते. मन को पैसो का मोल तो पता नही लेकिन माँ के सारे दिन पास रहने (कामकाजी हैं न, बच्चा आठ घंटे नानी के पास रहता है. ) पर बहुत खुश नजर आता. कभी टांग पर चढ़ जाता और कभी पेट पर. खेर राम राम करते ८ दिन बीते और हमारा प्लास्टर काटा गया. फिर कच्चा प्लास्टर बाँध कर घर भेज दिया. अब ऑफिस आए तो मानो सहकर्मियों को कोई मजेदार उड़न तश्तरी दिख गयी. सब हंसकर पूछते, अरे ये क्या हुआ, कहाँ से छलांग लगा दी. सीधा सरल बोलना तो शायद पत्रकारों को आता ही नही. सभी को अपने गिरने के किस्सा सुना सुना कर एकता कपुर के धारावाहिक की तरह बोर हो चले थे. ना आने ये प्रोग्राम कब तक चलेगा. कब तक हम सहानभूति बटोरते रहेंगे और कब तक टूटा पैर हमारी लाचारी पर हँसता रहेगा.
अब हम वापिस आ गये है तो लिखने की भी कोशिश करेंगे. (आख़िर पैर टूटा है, हाथ नही). पर फिर भी दर्द करता है (दिमाग नही पैर. ) आप सभी को हमारी नमस्ते.

4 comments:

घन्नू झारखंडी said...

विनीता जी, आपकी टांग क्या टूटी, यह तो वैसा ही हुआ कि जान ही सांसत में पड़ गयी। अमर उजाला में जबतक था, तब तक तो आपसे मुलाकात नहीं हो पायी थी। मिलने की इच्छा तो मेरी भी है। अक्तूबर-नवंबर में दिल्ली आना होगा मेरा, तब शायद आपसे जरूर मिलूं। दिल्ली में ही ब्लाग की शुरुआत हुई और सिलसिला ऐसा चला कि लगता है रोज ही कोई नयी कहानी सामने आकर खड़ी है। बहुत दिनों तक अपने १९ साल के अनुभवों का कतरा समेटता रहा, अब दैनंदिन खबरों पर भी अपनी बात लिखने की कोशिश कर रहा हूं। आपका ब्लाग भी मुझे अच्छा लगता है। इसमें है भावनाओं की बात, जो गहरे उतर जाती है। मेरा नंबर तो मेरे ब्लाग पर है, आपका नंबर नहीं है। मिले, तो आपसे बात करता रहूंगा। लिखती रहिए और हो सके तो मुझे भी नूतन आइडियाज देते रहिए। आखिर हम ब्लाग के सहयात्री तो हैं ही।
घनश्याम

बालकिशन said...

हा हा हा
बहुत खूब लिखतीं है आप.

रंजू भाटिया said...

:) ठीक हो गई आप यही अच्छा है ..लिखिए लिखिए .हमें और आपके लिखे का इन्तजार है :)

Udan Tashtari said...

अरे राम, ये क्या हुआ-टांग टूटी और हमें खबर भी नहीं?

चलो, सुन कर अच्छा लगा कि अब आराम आ गया है. ध्यान रखो अपना और मन का.

और हाँ ये क्या है??--कोई मजेदार उड़न तश्तरी दिख गयी. क्या उड़न तश्तरी टूटी टांग टाईप दिखती है?? :)