लाखों तारे आसमान में नीचे इन्हे उतारे कौन,
काँटों के सौदागर सारे घर और द्वार बुहारे कौन.
नसीहतों से भरे टोकरे लिए खड़े हैं लोग तमाम,
मुल्लाओं की महफ़िल में अपनी भूल सुधारे कौन.
तालीमों की किसे जरूरत किसको इंसानों से काम,
दरवाजे पर दस्तक देकर मेरा नाम पुकारे कौन.
खुशहाली में सभी पूछने आते थे मेरे हालात,
लेकिन तन्हाई के लम्हे मेरे साथ गुजारे कौन.
हालात से समझौतों में खामोशी बन गया जमीर,
सन्नाटे में चौराहे पर दिल की बात गुहारे कौन..
Monday, September 1, 2008
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12 comments:
विनीता जी,बहुत बढिया रचना लिखी है।बहुत खूब कहा है-
लाखों तारे आसमान में नीचे इन्हे उतारे कौन,
काँटों के सौदागर सारे घर और द्वार बुहारे कौन.
नसीहतों से भरे टोकरे लिए खड़े हैं लोग तमाम,
मुल्लाओं की महफ़िल में अपनी भूल सुधारे कौन.
बहुत बेहतरीन।
अपनी भूल सुधारे कौन...सही लिखा है आपने
लेकिन एक बात कहूंगा कि इसने कविता का रूप नहीं लिया ये एक पेराग्राफ सा लग रहा है। प्लीज इसे ठीक कर के फिर से पब्लिश कर दें।
बुरा मत मानिएगा।
नसीहतों से भरे टोकरे लिए खड़े हैं लोग तमाम,
मुल्लाओं की महफ़िल में अपनी भूल सुधारे कौन.
तालीमों की किसे जरूरत किसको इंसानों से काम,
दरवाजे पर दस्तक देकर मेरा नाम पुकारे कौन.
बहुत खूब विनीता जी.....आपके खयालो को देखा जा सकता है.....नीतिश की बात पर गौर फरमाये
ख्याल सुंदर है ....
बहुत ही सुन्दर रचना है। यदि अन्यथा न लें तो एक विनम्र सा सुझाव है। मीटर और मात्राओं पर थोड़ी सी मेहनत और करें।
hosla afjai ke liye shukriya vineeta ji...
apki yeh rachna to bahut hi sachi or achi hai...
हालात से समझौतों में खामोशी बन गया जमीर,
सन्नाटे में चौराहे पर दिल की बात गुहारे कौन..
bahut acha likha hai
तालीमों की किसे जरूरत किसको इंसानों से काम,
दरवाजे पर दस्तक देकर मेरा नाम पुकारे कौन.
खुशहाली में सभी पूछने आते थे मेरे हालात,
लेकिन तन्हाई के लम्हे मेरे साथ गुजारे कौन.
बहुत खूब.
विनीता जी, बहुत ही सुन्दर रचाना हे,बस इतना ही कहुगा की यह आप की कविता हम सब पर सटीक बेठती हे, ओर हमे आप की इस कविता से सबक लेना चाहिये.
धन्यवाद
हालात से समझौतों में खामोशी बन गया जमीर,
सन्नाटे में चौराहे पर दिल की बात गुहारे कौन..
बहुत अच्छे विनीता जी...बहुत अच्छी रचना है !!!!!!!!!!!!!!!!!
Vineetaji, bahut hi achhi rachna.main to ise excellent ka darja doonga.
नसीहतों से भरे टोकरे लिए खड़े हैं लोग तमाम,
मुल्लाओं की महफ़िल में अपनी भूल सुधारे कौन.
बहुत अच्छी रचना !
भूल करना मानव की सहज प्रवृित्त हैं और भूल सुधार मानवता का परिचायक है।
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