Thursday, June 26, 2008

हाय ! ये अदा



मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नही चलता. कयोंकि मैं रोज संतूर से नहाता हूं.

मनमोहक मुस्कान

Wednesday, June 25, 2008

तिरंगा या माल्या...

अभी हाल ही में लॉर्ड्स के मैदान पर भारतीय क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीतने की 25 वी वर्षगाँठ मनाई. 83 की विश्व कप विजेता टीम के साथ साथ बीसीसीआई के चेयरमैन शरद पवार भी वहां मौजूद थे. और एक शख्स था वहां, जिस पर सबकी नजरें थी, विजय माल्या. विजय माल्या आइपीएल की एक टीम का मालिक है, गौर करने वाली बात ये है कि पूरे लॉर्ड्स के मैदान में एक भी तिरंगा नही दिखाई दिया. पूरे जश्न में, जहां भारत की विजय को गर्व के साथ याद किया जा रहा था, वहां भारत के ही गौरव का प्रतीक चिहन नजर नही आया. टीवी स्क्रीन पर जो चीज़ बार बार दिखाई दे रही थी, वो था विश्व कप विजेता खिलाडियो के कंधे पर लगा यूबी ग्रुप का बेज. यूबी ग्रुप के मालिक विजय माल्या इस जश्न में इस तरह शामिल थे जैसे 83 के वर्ल्ड कप में उन्होंने ही टीम इंडिया की कोचिंग की हो. तिरंगा तो कहीं माहि था, था तो केवल यूबी ग्रुप का बेज. व्यवसायीकरण आज क्रिकेट पर इतना हावी हो गया है कि खेल भावना और देश भावना सेकेंडरी हो चली हैं. वो खिलाडी जो २५ साल पहले इतनी ख्याति पा चुके हैं, कि हर कोई उन्हें सलाम करता है, आख़िर उन्हें या बीसीसीआई को ऐसी क्या जरूरत पड़ गयी कि उन्हें शराब कि कंपनी चलाने वाले माल्या को साथ लेना पड़ा. आई पी एल तो खैर बाजारवाद से उपजी मानसिकता का प्रमाण है, लिकिन 83 के मैच विजेताओं को माल्या से कैसा प्रेम. जाहिर है, माल्या चाहे तो इन बुध गये खिलाडियो को किसी विज्ञापन में दिखा दे तो कुछ पैसा इन्हे भी मिल जाए. या फिर इन्हे आईपीएल की अपनी रोएल चेलेंज में ही कोई नौकरी दे दे. बीसीसीआई को भी माल्या से पैसे की उम्मीद है. तभी तो पूरे जश्न में पवार माल्या को साथ साथ लिए फिरते रहे. लॉर्ड्स के पवेलियन में यूबी और गीतांजलि के बैनर तो दिख रहे थे लेकिन अपने देश के सम्मान तिरंगे को कहीं लगना किसी को ध्यान नही आया. या फिर तिरंगा जान बूझकर नही लगाया गया. आज के खिलाडी देश के लिए नही पैसे के लिए खेल रहे है, ये तो सभी कहते हैं लेकिन पुराने खिलाड़ी इस खेल में कुछ ढीले पड़ गये है. अब मौका है तो वो भी पैसे की इस बहती गंगा में देर से ही जरा तर तो हो जायें डुबकी न सही हाथ तो धो ही लें. फिर पानी चाहे माल्या का हो या किसी और का.

Tuesday, June 24, 2008

गंगा जी के घाट पे...

राम तेरी गंगा मैली हो गयी, तीर्थयात्रियों के कपड़े धोते धोते. सही ही तो है. आजकल लोग गंगा में पाप धोने नही कपड़े धोने और शरीर का मेल धोने जाते हैं. पिछले दिनों हरिद्वार जाने का मौका मिला तो मैं देख कर दंग रह गयी कि लोग सचमुच कितने गंदे हैं. अपने घरो को साफ़ करने के लिए दिन मे तीन चार बार सफाई करने वाले यहाँ बेधड़क गंद फैला रहे हैं गंगा जी के घाट पर.घाट पर (गंगा जी के मन्दिर के पास वाला घाट जहा शाम की आरती होते है ) पर गंदगी का ढेर. जमीन चीकट इतनी कि पैर फिसल जाए. भिखारियो के अड्डे, घाट के पार जाने वाली सीढियो पर अस्थाई घर बनाये बैठे अधनंगे और अपंग. वो सीढियों पर कब आपका पैर पकड़ ले और आप गिर जाए, कह नही सकते. प्रशासन इनकी रोकथाम करने पर धयान नही देता (शायद मिलीभगत हो).प्लास्टिक की चादरें (घाट पर बैठने के लिए.) बेचते बच्चे . देखने में बच्चे, पर अनजान को चूना लगाने में नम्बर एक. पाच पाँच रुपए की चादरें विदेशिओं को बीस बीस रुपये में बेच दी. इनसे हफ्ता वसूलते कुछ गुंडे टाइप के लड़के. बच्चो का मुंडन करने के लिए पीछे फिरते नाई. बहरूप धरकर लोगो से पैसे मांगते भांड. घाट पर प्रसाद बेचते दूकानदार, भिखारियो को खिलाने के लिए खाना भी बिक रहा है. दाल चावल, पूरी (अठन्नी के आकार की. ) और चने. पुन्य कमाने के लिए ये खाना खरीद कर वहा बैठे भिखारियो को दीजिये और कुछ देर बाद ये भिखारी यही खाना दुकारदार को वापिस करके कुछ पैसा बना लेंगे. और फिर दूकानदार ये खाना किसी और को बेच देगा (भिखारियो को खिलाने के लिए.) क्या कमाल का रोस्टर चल रहा है गंगा जी के घाट पर धरमशाला कहने के लिए तो धर्मार्थ के लिए बनाई गयी हैं लेकिन प्रति यात्री डेढ़ सौ रुपये वसूल रही हैं तीन दिन से ज्यादा ठहरे तो सौ रुपये एक्स्ट्रा. खाना पीना बाहर खाने की व्यवस्था जरूर कुछ सस्ती है. लेकिन जो कुछ भी है, साफ़ सफाई से कोसो दूर है. पीने के लिए साह पानी की कमी सब तरफ़ है. कमाल है, पीने का पानी नही है गंगा जी के घाट पर. मसले और कुचले फूलों की गंदगी और प्रसाद की चिकनाहट खूब गिरती है गंगा जी के घाट पर. शाम कि आरती जरूर मोहक होती है. एक साथ इतने सारे दीये और प्रज्वलित मुख्य आरती मनमोहक समां बाँध देती है. उस दौरान गंगा की लहरे भी तेज हो जाती हैं. लेकिन उन लहरों में अपने फूल और प्रसाद से भरे दोने बहाकर लोग मतिअमेत कर देते है. आरती से प्रसन्न हुए गंगा माता जरूर बुरा मान जाती होंगी कि इतने फ़ूल, धूप-deep, अगरबती और माचिस के तीलिया मुझे चढ़ा कर कौन सी मनोकामना पूरी कर रहे हो. रोज ये ही प्रताड़ना झेलती है गंगा माता अपने ही घाट पर.
नहाने वालो को पुण्य कमाना है तो गंगा जी में एक डुबकी काफ़ी नही, साबुन और उबटन लगा लगा कर नहाएँगे. अंडरवीयर भी गंगा जी में ही धोयेंगे. महिलाये अपने और अपने साथ आए सभी लोगो के कपड़े लत्ते भी यहाँ ही धो लेंगी (जाने घर जाकर पानी मिले या न मिले). बच्चों की पोटी मुत्ती सब गोपनीय रूप से संपन कर लिए जायेंगे गंगा जी के घाट पर. अब एक नज़ गंगा जी पर. अविरल बह रही हैं. हर कि पडी भले ही गन्दी हो गयी हो लेकिन हरिद्वार में और कई घाट हैं जहा अब भी साफ़ सफाई मिल जायेगी. पुन्य कमाने के चक्कर में सब हर कि पैडी पर ही भागते है. अन्य घाटों पर साफ़ सफाई भी है और भीड़ भी कम है. भिखारियो कि तादात भी कम होगी. कुछ आश्रमों ने भी गंगा जी को अपने अपने घाटों में बाँट लिया है. यहाँ सीढिया भी मिलेंगी और उनसे जुड़ी लोहे की चेन भी. पास ही पीपल का पेड़ और उसके नीच शिवलिंग की पूजा करती कई बूढी महिलायें. यहाँ आपको बाजारीकरण नही मिलेगा. शोर शराबा नही मिलेगा. मिलेगी तो केवल गंगा जी की साफ़ और अविरल धार. पुन्य कमाना है तो हर की पैडी पर जाइये. अगर आप भी गंगा जी जा रहे है तो मेरी एक ही अपील है कि नहाइए तो खूब लेकिन गंगा जी को गन्दा मत कीजिये. क्यूकि करोडो लोगो कि श्रद्धा का केन्द्र है गंगा जी के घाट पर.

Saturday, June 21, 2008

हाय री महंगाई निकल भागी

आजकल की ताजा और तीखी ख़बर. महंगाई ११ के फेर से निकल भागी. . कमबख्त, काफ़ी दिनों से फिराक में थी. छलांगे लगना जो आ गया था, रोज ही पहले से ज्यादा लम्बी छलांग लगा रही थी. इससे पहले कि कोई रोके, एक लम्बी कूद मरी और हो गयी ११ के पार. अब लकीर पीटते रहो वो वापिस नही आने वाली. सयानों ने काफ़ी समय से आगाह कर रखा था कि छोरी पर ध्यान दो वरना हाथ से निकल गयी तो आटे दाल का भावः पता पड़ जायेगा. लेकिन सरकार ने एक ना सुनी. अब मलो हाथ, चाहे तेल वालो को कोसो या आर्थक मंदी का हवाला दो, गयी चीज़ हाथ में वापिस नही आती. लेकिन किसने उकसाया महंगाई को. वो तो ऐसी नही थी. अपनी हद से कभी कभी ही बहार आया करती थी और सरकार भी तब ये कह कर उसका बचाव कर लिया करती थी ही विकासशील देशों में ऐसा होता रहा है. अब वो ही सरकार मुह छिपाए घूम रही है. दरअसल महंगाई की आदत को बिगाड़ा भी सरकार ने ही था. उसे छलांगे लगाना भी तो इसी सरकार के राज में आया. इसी सरकार ने इसे भड़काया और अपनी जेबें गरम की. और अब सरकार के पास कहने के लिए कुछ नही है. गली मुहल्ले वाले विरोधी भाजपाई तरह तरह के ताने मारकर जीना मुहाल किए दे रहे हैं, वाम दल रुपी पति महोदय तो घर से निकाल देने पर उतारू है. सरकार थार थार कांप रही है. अगले साल चुनाव है और सर पर ये आफत. अब तो नैया जरूर डूबेगी., नाक कटेगी सो अलग. महंगाई के पर कातने के लिए वित्तमंत्री भइया और दूसरे भाईयों ने खूब कोशिश की लेकिन वो नही मानी. अब सोनिया आंटी भी कुछ नही बोल रही. सबसे ज्यादा चोट तो बेचारी जनता को लगा है. उसे आटे दाल का ही नही, तेल और साबुन का भी भावः पता चल गया है. वो भावः जो उसे कभी नही भूल पायेगा. सब्जी भी महंगाई के निकल भागने के साथ ऊंचाई पर जा रही है. टमाटर तो टमाटर, आलू भी सीना तान रहा ही. भिन्डी हो या तुरई, सब हलकान करने पर तुले हैं. शिमला मिर्च भी तीखी होने लगी है. अब किसे क्या कहे.... सेलेरी बढती है २ रुपये और महंगाई बढती है ५ रुपये. अब ये तीन रुपये कहां से लायें.चोरी करें या डाका डालें. चलो डाका ही दाल लेते हैं. पकड़े गये तो मुकदमा पूरा होने तक जेल में रोटी दाल तो मिल ही जायेगी. चोरी करने के लिए कुछ सोचना पड़ेगा. आजकल पुलिस वाले जब चोरी के इल्जाम में जेल में डालते हैं तो बाहर आदमी नही उसकी लाश आती है. तो फिर चोरी का प्लान केंसिल डाके की योजना बनाई जाए. अब ये महंगाई और आगे भागी तो कतल न करना पड़ जाए. सुना है कतल के आरोपिओं को तो सुप्रीम कोर्ट खोज खोज (चाहे कितने ही साल क्यों न गुजर जायें.) कर सजा देता है.

Friday, June 20, 2008

ये हाल अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

कल अपने विभाग मैं कुछ नए लोगो की भरती के लिए टेस्ट लेने का मौका मिला. 15 लोग थे जो सभी पत्रकारिता मे एम ऐ कर रहे थे. अपने आपको बड़ा गंभीर और कुछ नया सीखने को जागरूक दर्शाते हुए सभी पेपर देने से ज्यादा इस बात को जानने के लिए उतावले थे की ट्रेनिंग कितने दिनों में पूरी हो जायेगी और कन्फर्म कब तक हो जायेंगे. टेस्ट में पास होने के किसी को कोई चिंता नही थी. सब चाह रहे थे की ट्रेनिंग मिले और उनके रिज्यूमे में अमरउजाला का नाम शुमार हो जाए. ये जल्दबाजी किस बात की जो बिना काम सीखे ही लिख दिया जाए कि अमुक पेपर में काम किया और अमुक में ट्रेनिंग. दरअसल किसी अखबार में ट्रेनिंग मिलते ही ये सभी रंगरूट किसी न्यूज़ चेनल और अखबार में सब एडिटर के लिए ट्राई मरेंगे. इस बात का पता हमें भी है और ये भी जानते हैं. यहाँ भले ही ये कुछ सप्ताह के लिए काम करे या कुछ दिनों के लिए, इनके रिज्यूमे में अमर उजाला या किसी और पेपर का नाम जरूर एड हो जायेगा.
कभी कभी सोचती हू कि ये जल्दबाजी आख़िर किसलिए. अभी तो बहुत कुछ सीखना है. पत्रकारिता केवल डिप्लोमा या डिग्री कर लेने से आने वाली विधा नही है. ये काम के आपका पूरा समय और समर्पण मांगती है. आप एक महीना में दस अखबारों में काम करके पत्रकार नही बन सकते. एक स्थान पर समय और पूरा दिमाग लगाना होगा. घटनाओं और समाज पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी. इसके लिए डिप्लोमा नही वरन सामायिक दृष्टि चाहिए. पर ये नए खिलाडी नही जान पाते या फिर जानना नही चाहते. इन्हे तो जल्द से जल्द बड़ा पत्रकार बनना है जो किसी बड़े दंगे या चुनावों की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा हो. विज़न के बिना, केवल अपना रिज्यूमे बढाये जाने से पत्रकारिता नही आती. लेकिन कोई नही समझ पाता. ख़ुद मेरे अखबार में कई ऐसे ट्रेनी आए जो आने के बाद एक हफ्ता भी नही टिके, जागरण या भास्कर में सब एडिटर बन गये, वहा भी महीने भर से ज्यादा नही टिके और किसी और अखबार में ज्यादा पैसे पर काम करने लगे. ज्यादा पैसा और रिज्यूमे में ज्यादा संस्थान शगल सा बन गया है. इसमे केवल पत्रकारों का ही दोष नही, एक दूसरे के एम्प्लोई खींचने और तोड़ने की परंपरा मीडिया में भी चल पडी है.

आज वो नजारा मैं देख रही हू. यहाँ लड़के आपस में बतिया रहे है...अरे दिवाकर की तो एन डी टीवी में लग गयी. ट्रेनी और कवर करने भी जा रहा है. और प्रिया तो अपने लोहिया जी की पहचान के चलते भास्कर में चली गयी. बस मेरा जरा यहाँ कुछ हो जाए. फिर मामाजी ने कहा है कि अगले महीने जी न्यूज़ में करवा देंगे. उनका फ्रेंड वहा है न..यानि अब ये कह सकते हैं कि 'ये हाल है अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

Thursday, June 19, 2008

ये हाल अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा..

कल अपने विभाग मैं कुछ नए लोगो की भरती के लिए टेस्ट लेने का मौका मिला. 15 लोग थे जो सभी पत्रकारिता मे एम ऐ कर रहे थे. अपने आपको बड़ा गंभीर और कुछ नया सीखने को जागरूक दर्शाते हुए सभी पेपर देने से ज्यादा इस बात को जानने के लिए उतावले थे की ट्रेनिंग कितने दिनों में पूरी हो जायेगी और कन्फर्म कब तक हो जायेंगे. टेस्ट में पास होने के किसी को कोई चिंता नही थी. सब चाह रहे थे की ट्रेनिंग मिले और उनके रिज्यूमे में अमरउजाला का नाम शुमार हो जाए. ये जल्दबाजी किस बात की जो बिना काम सीखे ही लिख दिया जाए कि अमुक पेपर में काम किया और अमुक में ट्रेनिंग. दरअसल किसी अखबार में ट्रेनिंग मिलते ही ये सभी रंगरूट किसी न्यूज़ चेनल और अखबार में सब एडिटर के लिए ट्राई मरेंगे. इस बात का पता हमें भी है और ये भी जानते हैं. यहाँ भले ही ये कुछ सप्ताह के लिए काम करे या कुछ दिनों के लिए, इनके रिज्यूमे में अमर उजाला या किसी और पेपर का नाम जरूर एड हो जायेगा.
कभी कभी सोचती हू कि ये जल्दबाजी आख़िर किसलिए. अभी तो बहुत कुछ सीखना है. पत्रकारिता केवल डिप्लोमा या डिग्री कर लेने से आने वाली विधा नही है. ये काम के आपका पूरा समय और समर्पण मांगती है. आप एक महीना में दस अखबारों में काम करके पत्रकार नही बन सकते. एक स्थान पर समय और पूरा दिमाग लगाना होगा. घटनाओं और समाज पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी. इसके लिए डिप्लोमा नही वरन सामायिक दृष्टि चाहिए. पर ये नए खिलाडी नही जान पाते या फिर जानना नही चाहते. इन्हे तो जल्द से जल्द बड़ा पत्रकार बनना है जो किसी बड़े दंगे या चुनावों की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा हो. विज़न के बिना, केवल अपना रिज्यूमे बढाये जाने से पत्रकारिता नही आती. लेकिन कोई नही समझ पाता. ख़ुद मेरे अखबार में कई ऐसे ट्रेनी आए जो आने के बाद एक हफ्ता भी नही टिके, जागरण या भास्कर में सब एडिटर बन गये, वहा भी महीने भर से ज्यादा नही टिके और किसी और अखबार में ज्यादा पैसे पर काम करने लगे. ज्यादा पैसा और रिज्यूमे में ज्यादा संस्थान शगल सा बन गया है. इसमे केवल पत्रकारों का ही दोष नही, एक दूसरे के एम्प्लोई खींचने और तोड़ने की परंपरा मीडिया में भी चल पडी है.

आज वो नजारा मैं देख रही हू. यहाँ लड़के आपस में बतिया रहे है...अरे दिवाकर की तो एन डी टीवी में लग गयी. ट्रेनी और कवर करने भी जा रहा है. और प्रिया तो अपने लोहिया जी की पहचान के चलते भास्कर में चली गयी. बस मेरा जरा यहाँ कुछ हो जाए. फिर मामाजी ने कहा है कि अगले महीने जी न्यूज़ में करवा देंगे. उनका फ्रेंड वहा है न..यानि अब ये कह सकते हैं कि 'ये हाल है अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

Tuesday, June 17, 2008

हिमालय की यात्रा...

बढते पर्यटक उद्यमों के साथ हलके उपकरणों और कपडों के विकास के साथ ही हिमालय की यात्रा अब काफ़ी आसान और आनंददायक और आसान हो गयी है. अगर कठिन रास्ते हैं तो आसान और छोटे रास्ते भी हैं. वाहन, हेलीकॉप्टर आपकी पसंद, बजट, समय और संसाधन के आधार पर आपको हिमालय खोजने मैं मदद करेंगे. १२, ००० से १४,००० फीट की ऊंचाई पर भी छोटे छोटे गावं बसे हुए हैं. यहाँ अपनी गायों, भेडों को चराते हुए चरवाहे, गडरिये और गूजर मिल जायेंगे जो आपको पूरे रास्ते गाइड करते रहेंगे. वैसे भी अब ज्यादातर चोटियां आबादी से भर गयी हैं हिमालय की चढाई करने की बजाए हिमालय की यात्रा करे तो ज्यादा आनंद मिलेगा. इस दौरान सुंदर और शानदार द्रश्यों से यात्री अपनी थकान भूल जाते हैं और नए जोश के साथ आगे चलते हैं. आप हिमालय का पर्वतारोहन करने के साथ साथ शारीरिक व्यायाम करते हैं जो आपको घर लौटने तक चुस्त रखता है. १० से १५ किमी की एक दिन की यात्रा का आनंद केवल वो ही लोग ले सकते हैं जो फिट हों और प्रकृति और पहाडों मैं रूचि रखते हों. एक तरफ़ कलकल करती बहती हुए नदी की धारा और दूसरी और फूलों से भरे चारागाहों की कतार. कही बरफ से ढके पहाड़ और कहीं खाई. ये ही तो रोमांच है. यहाँ सब कुछ शुद्ध मिलेगा. पानी, हवा और खाना भी. हिमालय मैं काफ़ी ऊंचाई पर बसे गावों का अभी तक आधुनिकता से संपर्क नही हो पाया है. यहाँ बिजली, और तेलेफोने जैसे सुविधायें अभी तक नही आ पाई हैं. लेकिन यहाँ के लोक इनके बिना भी स्वयं मैं पर्याप्त हैं. पूर्वी हिमालय में घने बांस के जंगल है. गाविओं में भी बांस के घर हैं और ये पेड़ खेती की जमीन के चारों ओर फेले हुए हैं. असम, भूटान और सिक्किम के क्षेत्रों नेपाल पर नेपाली प्रभाव छाया है. जबकि दूसरी तरफ़ पशिमी नेपाल गढ़वाल और कुमायूं में देवदार के जंगल है. यहां गावोँ में लकड़ी और स्लेट के ठोस मकान बनाए जाते है. हिमालय में मौसम ज्यादा बर्फीला है. यहाँ की जमीन सूखी और बंजर है. यहाँ सपाट परछाती के मकान लकड़ी और पत्थर के बनाये जाते हैं. यहाँ के क्षेत्र पर लद्दाखी और तिब्बती प्रभाव छाया है.

अमरनाथ पर जा रहे हैं क्या...

हिमालय सदियों से यात्रियों परवातारोहिओं, तीर्थयात्रियों और तपस्विओं को आकर्षित करता आ रहा है. बर्फ से ढकी इसकी चोटिया और विशाल ग्लेशिअर लोगो को अपनी प्रवीणता और साहस को बनाये रखने के लिए प्रलोभित करते रहे है. साधू और सन्यासी तो अमरनाथ जा रहे है पुण्य कमाने, चले हम भी अमरनाथ की यात्रा के बहाने हिमालय की कुछ अनछुई सुन्दरता से वाकिफ हो लें..हिम रेखा से आठ हजार फुट नीचे , प्रकृति आपको अनवरत रूप से यह खड़ी चोटियों के शांत वैभव से नीचे जल्प्रपाती झरनों लहलहाते हरे भरे वनों फूलों की चादर ओढे चारागाहों और पेड़ पौदों के एक ऐसे संसार मैं ले जायेगी जहां मोती जैसे अल की नदियां बहती है और प्रकृति आपको एक स्पंदित करने वाले दूसरे ही संसार मैं ले जायेगी. हिमालय अपने आप मैं एक अनोखा, अनछुआ और शांत संसार समेटे हुए है. यहां कई गांव बसे हुए हैं. यह के लोगो तो ये तो पता है कि दिल्ली और मुम्बई कहाँ है लेकिन हर किसी की तरह दिल्ली या मुम्बई जाने का उतावलापन नही. यहां के निवासी अपने आस पास के वातावारण के लिए स्पंदित भी हैं और आधुनिक सभ्यता की अनिश्चितता से अनजान भी. पुरातन काल से ही हिमालय की चोटियों पर शांति की तलाश मैं जो तपस्वी गए, वो वही के होकर रह गए. वह उन्होंने देवाश्र्य, तीर्थस्थल और आश्रम बनाये जो हिंदू समाज के पारिवारिक नामो से मिलते होने के कारण ये प्रसिद्ध हुए. कहते हैं कि हिमालय पर सबसे पहले पहुचने वाले साधू नही वरन शिकारी और चरवाहे थे. इनके पास हिमालय की चडाई के लिए कोई विशेष प्रशिक्षण या आरोही तकनीके नही थी. बस कुछ नया जरूरत और लगातार परिश्रम के चलते इन्होने हिमालय कर जीवंतता को खोज निकाला. ये दुर्गम चोटिया और बर्फीली चादरों से ढके शिखर आम जन के लिए ईश्वरीय निवास है तो जोशीले और चुनौती पसंद लोगो के लिए शान्ग्रीला.
बाकी बाद में...

Saturday, June 14, 2008

ये है नॉएडा मेरी जान


दिल्ली हो या मेरठ , फरीदाबाद हो या हापुड़, और तो और बुलंदशाहर जिसे देखो नॉएडा की तरफ़ कूच कर रहा है. नॉएडा नौकरी वाला शहर जो बन गया है. एनसीआर मैं और दिल्ली मैं नॉएडा काम करने वालो का प्रतिशत कुछ ज्यादा ही हो गया है. यही नही देश के सभी भागो से लोग यह नौकरी करने के लिए भागे आ रहे है. नॉएडा रोजगार के मामले मैं होट सिटी बन गया है. मैं ख़ुद भी नॉएडा में हूँ और मेरे पति भी. एक अनार सो बीमार वाली कहावत यहां भी हो रही है. लोग इतने, और जगह की कमी. ऐसे में यह प्रोपर्टी के दाम आसमाम पर जा रहे हैं. जिन लोगों की अपनी जमीन हैं. वो चार मंजिले मकान बनाकर किराया खा खा कर धन्ना सेठ बन रहे हैं. मजबूरी में आदमी को इनके मंहगे मकान लेने पड़ते है. लड़के लड़कियां ग्रुप बनाकर एक कमरे में चार चार रहते है. खाना पेइंग गेस्ट के रूप में मकान मालकिन के घर खाया या फिर ढाबा जिन्दाबाद. यहां का पानी तो आपको बिल्कुल सूट नही करेगा. पैसा है तो एक्वा गार्ड लगवा लें या फिर तीस तीस रुपए में पानी के डिब्बे लीजिये. लाइट- भी बड़ी ही विकट समस्या है. आती कम है और जाती ज्यादा है. नॉएडा पुलिस के बारे में तो आजकल मीडिया में आप रोज ही सुन रहे है. पुलिस की नाक के नीच लूट होती है, खून तक हो जाते है. और पुलिस केवल जांच करती रह जाती है. सच मानिए तो नॉएडा की तरह यह कि पुलिस भी कुछ सुस्त है. नॉएडा में कुछ है तो वो है, बड़ी बड़ी कम्पनियां और मॉल्स. शानदार इमारतें और चमकते हुए मॉल्स. ये मॉल्स सब कुछ बेचते है. सुई से लेकर कार तक मिलेगी यहाँ.लेकिन जरा सावधान होकर जाएं क्यूकि ये मॉल्स चकाचोंध में आपकी जेब खाली कर देते है. नॉएडा का ट्रेफिक तो पूछिये मत. यहां सड़क पर ऑटो वालो की चलती है. ये सब अपनी मस्ती में चलते और रुकते हैं. ट्रेफिक नियमो की चिंता किसी को नही. लाइट ग्रीन हो या रेड, गाड़ी को सबसे आगे निकल कर ले जाना है. तीन की सीट पर चार को बिठाना और सवारी को भेड़ की तरह भर लेना इनकी पुरानी आदत है. यहां इनकी तानाशाही चली आ रही है. कुछ भी हो, नॉएडा में फिर भी भीड़ है जो कम होने की बजाये बढती ही जा रही है. नॉएडा का क्रेज सब पर चढ़ कर बोल रहा है. ये शहर लोगो को रोजगार जो देता है. जीने की एक आस देता है.

किसका हिस्सा कौन सा..


क्षेत्रवाद के मामले मैं आज अपने देश की हालत देखकर बुरा लगता है. क्या हो गया है हमे. कोई मुम्बई का नारा बुलंद कर रहा है तो कई बिहार का. कोई उत्तराखंडी है तो कोई दिल्ली वाला बनकर इत्र रहा है. असम मैं तो हिन्दी वालो को जान से मारा जा रहा है. आजादी के बाद जब अंग्रेजो ने पाकिस्तान को कात तो इतना दुःख हमारे नेताओ को नही हुआ होगा जितना आज का जनता को हो रहा है. कोई राज ठाकरे उत्तर भारतियो को भागना चाहता हो तो कोई बिहारियो को अपने यह से दूर करना चाहता है. आख़िर अपने ही देश मैं कोई हिन्दुस्तानी बेगाना हुआ जा रहा है और नेता देख रहे है, क्षेत्रवाद राजनीति की मलाई खाने का नया तरीका है. इस मुद्दे पर सभी फायदा लेना चाह रहे है. कल को क्षेत्रवादके नाम कर राजनीति करने वाले यही नेता जब राष्ट्रीय राजनीति मैं पहुच जायेंगे तो अपने ही क्षेत्र को भूल जायेंगे.