Thursday, July 31, 2008

वो गरीब पुलिसवाला...


जिस मकान में हम लोग रह रहे है, वहां सामने के बहुमंजिला मकान में तीसरे माले पर एक परिवार है. निम्न मध्यम वर्गीय परिवार, दो बेरोजगार बेटे, एक आलसी सी अधेड़ माँ और एक ५० साल का पुलिसवाला. चौंक गये न. जी हां पुलिसवाला. दो बेरोजगार बेटो का बाप और पुलिस वाला. आलसी सी अधेड़ बीवी का पति और वो भी दिल्ली की पुलिस में. फ्लेट्स में तीसरी मंजिल लेने वाला कोई निम्न मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा आदमी हो सकता है, पुलिस वाला नही. और पुलिस वाला निम्न मध्यम वर्गीय तो हो ही नही सकता. पुलिस वाला चाहे किसी भी पोस्ट पर हो उच्च वर्गीय ही होगा. ये दिल्ली और भारत के अधिकतर इलाको का अलिखित इतिहास और क़ानून है. यहाँ पुलिसवाले गरीब नही मिलेंगे और जो मिलेंगे हमारे सामने वाले की तरह किसी ब्लॉग में जगह पा लेंगे. बहरहाल मैं कहानी सुना रही हु उस पुलिसवाले की जो हमारे सामने रहता है. सुबह पता नही कब हाथ में डंडा हिलाता हुआ बस स्टाप की तरफ़ निकल जाता है. उसके दोनों बेरोजगार बेटे उसके जाते ही छत पर पतंग उडाने चले जाते है और आलसी सी अधेड़ बीवी ( हमारे पति महाशये ने उनका यही नामकरण किया है) कपड़े सीने के बहाने बालकनी में बैठकर हमारे घर की और ताकती रहेगी. पति को शायद उसकी यह ताकने की कला नही भाती और उससे बहुत चिड़ते हैं.उस घर में दो कमरे हैं. छोटी सी रसोई और एक अदद बालकनी हैं. (अगर ये बालकोनी न होती तो शायद पुलिसवाले की गरीबी से हम और आप अनभिज्ञ रहते. ) घर में बेहद सिंपल फर्नीचर, खाट भी है. कूलर नही है और पंखे की हवा सही तरह से लेने के लिए सब जमीन को ठंडा करके जमीन पर ही सोते है. क्या उसके पास इतने पैसे नही कि जमीन लेकर मकान बना सके. फ्लेट में तो मजबूर लोग रहते है. आखिर कितना गरीब है ये पुलिस वाला. पता नही क्यों ऐसे रहते है. मन में हलचल होती है लेकिन पूछने की हिम्मत नही होती. शाम को जब पुलिसवाला डंडा हिलाता हुआ घर आता है तो भी उसके हाथ आश्चर्यजनक रूप से खाली होते है जो आम तौर पर दूसरे पुलिस वालों के नही होते. उसके बेटे किसी मलाईदार कंपनी में नौकरी क्यों नही करते, बीवी स्मार्ट सी बनकर क्यों नही रहती, घर में शानदार फर्नीचर क्यों नही है. वो अब भी खाट पर बैठकर क्यों खाता है, और वो मोटा तो कतई नही है. बिल्कुल स्लिम ट्रिम. उसके घर पर भी कोई नही आता. ना जी कोई नही, वर्ना पुलिसवालों के घर तो उनकी अबसेन्ट में भी फरियादी आते रहते है. कोई नल ठीक करवा रहा है तो कोई गमले रखवा रहा है, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नही, कल तो पुलिसवाले की बीवी एक पौधा लेने के लिए विक्रेता से लड़ रही थी. आप लोगो की तरह मेरे मन में भी सवाल उठता है कि आख़िर वो पुलिसवाला है तो पुलिसवाले की तरह दिखता क्यों नही है. क्यों रिश्वत से उसका घर भरा नही है. उसके बेटे उसके पुलिसवाला होने के वावजूद बेरोजगार क्यों है. क्या वो अपने पड़ का सदुपयोग करके अपने बेटो को सेट नही करवा सकता. ऐसा है तो क्यों है. क्या उसे सही तरह से घूस नही मिलती या वो घूस नही लेता. क्या वो शरीफ है या देखने का नाटक करता है. क्या उसके बेनामी खाते होंगे. हालाँकि इसी गली मे एक भूतपूर्व थानेदार का भी मकान (आलिशान बंगला और एक बहुमंजिला फ्लेट) है लिकिन उसकी शान बघारने लिए पेज कम पड़ जाएगा, वो फिर कभी. समझ में नही आता की इस पुलिसवाले को क्या परेशानी है. ये अमीर क्यों नही है, ये मोटी तोंदवाला क्यों नही है. इसे रिश्वत खानी नही आती क्या. क्या कोई इसकी मदद करेगा. इसे घूस खानी सिखा दे कोई, तो हम भी शर्म से नही गर्व से कह पाएंगे. की हम पुलिसवाले के घर के सामने रहते है.

Wednesday, July 30, 2008

अरे ये क्या हुआ....

कुछ दिनों पहले शनि देव जी की कृपा से हमारा पैर टूट गया. बच्चे (आठ माह के हो गये हैं हमारे मन) को लेकर सीढ़ी से उतर रहे थे कि उसने छलाँग (कूदने और उछलने में माहिर, शायद सर्कस में करियर बनाएगा.) लगा दी. हम घबरा कर उसे बचाने के चक्कर में अपनी टांग तुडा बैठे और भाई साहब को चोट तो क्या खंरोच तक नही आई. और फिर भी सब उनके बारे में इस तरह चिंता कर रहे थे जैसे उन्हें बहुत चोट लगी हो. खेर हमें अस्पताल ले जाया गया और वहां घोषणा हुई कि पैर में फ्रेक्चर है उफ़ हो गयी सप्ताह भर की छुट्टी. डर के मारे फीवर भी आ गया. दरअसल ये फीवर टांग टूटने के चलते नही आया, ऑफिस की छुट्टी के चक्कर में आया. डॉक्टर ने सप्ताह भर का आराम की हिदायत , प्लास्टर और दो दर्जन गोलियां गिफ्ट में दे दीं. जी तो आया कि उसका पैर तोड़ दू लेकिन फिर मन मसोस लिया.
खेर ये आराम की हिदायत बहुत महँगी और तकलीफदेय रही. घर पर मेहमान आते, हल चाल पूछते, चाय शाई पीते और मुफ्त की सलाह देकर चले जाते. हां जाते हुए मन भाई साहा को पैसे जरूर देकर जाते. टांग हमारी टूटी और मन भाई साहब का बैंक बैलेंस बढ़ रहा था. सास ससुर , जेठ जेठानी, मित्रजन, पड़ोसी माभी आए और गये. हम उन्हें अपने गिरने का सिलसिलेवार और रता रटाया किस्सा सुनाते, पति महाशय चाय बनाते और पिलाते rahate. मेहमान किस्सा सुनते हुए चाय पीते और सलाह देते. अब आराम करो, ज्यादा चलोफिरो नही, फला फला दवाई खाओ, जडी बूटी खाओ हमने भी खाई थी. जल्द ठीक हो गये. तुम भी खाओ. पैर कि मालिश करो, ऐसे बेठो, वैसे बेठो. पति तो नसीहत मिलती, इसे आराम कराओ, बेचारी से काम मत कराना. फिर मन को प्यार करते और उसे पैसे देकर चले जाते. मन को पैसो का मोल तो पता नही लेकिन माँ के सारे दिन पास रहने (कामकाजी हैं न, बच्चा आठ घंटे नानी के पास रहता है. ) पर बहुत खुश नजर आता. कभी टांग पर चढ़ जाता और कभी पेट पर. खेर राम राम करते ८ दिन बीते और हमारा प्लास्टर काटा गया. फिर कच्चा प्लास्टर बाँध कर घर भेज दिया. अब ऑफिस आए तो मानो सहकर्मियों को कोई मजेदार उड़न तश्तरी दिख गयी. सब हंसकर पूछते, अरे ये क्या हुआ, कहाँ से छलांग लगा दी. सीधा सरल बोलना तो शायद पत्रकारों को आता ही नही. सभी को अपने गिरने के किस्सा सुना सुना कर एकता कपुर के धारावाहिक की तरह बोर हो चले थे. ना आने ये प्रोग्राम कब तक चलेगा. कब तक हम सहानभूति बटोरते रहेंगे और कब तक टूटा पैर हमारी लाचारी पर हँसता रहेगा.
अब हम वापिस आ गये है तो लिखने की भी कोशिश करेंगे. (आख़िर पैर टूटा है, हाथ नही). पर फिर भी दर्द करता है (दिमाग नही पैर. ) आप सभी को हमारी नमस्ते.

Thursday, July 17, 2008

बम बम भोले.

सावन का पावन माह आरम्भ हो रहा है. देश के कौने कौने से कांवर लेकर शिव भक्त हरिद्वार के तट पर पहुंचेंगे और गंगा जी से शिव बाबा का जलाभिषेक करेंगे. सावन का महीना वैसे भी शिव पूजा के लिए बेहद उत्तम है. इस मौके पर आपके लिए विशेष पेज. बम बम भोले. जानिए शिव और शिवत्व के बारे में....सावन की महिमा से भी परिचित होने का उत्तम अवसर. http://www.amarujala.com/kanwaryatra07/default.asp

Tuesday, July 15, 2008

उल्लू बनाया आपने...


काफ़ी कम लोग जानते है कि दिल्ली के प्रगति मैदान (जहां हर साल ट्रेड फेयर लगता है) में शाकुंतलम थियेटर हैं जहां हर भाषा की, नई और पुरानी लेकिन बेहतरीन फिल्म दिखाई जाती है. अन्य सिनेमा हॉल कि तरह यहाँ फस्ट सेकंड या थर्ड क्लास की सीटें नही होती. सभी के लिए एक जैसी सीट होती है और फ़िल्म भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लगती है. टिकट भी औरों की तुलना में काफ़ी कम होते है. यहाँ हमने कई फ़िल्म देखी, पुरानी फिल्मों में अंगूर, नई फिल्मों में दिल है कि मानता नही. राजा हिन्दुस्तानी, बेटा और कई सारी....

उन दिनों हम भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहे थे. अखबार में देखा तो शाकुंतलम पर टाइटेनिक लगी थी. हम अपने आप को रोक नही पाये और अपने दो साथियों के साथ चल पड़े टाइटेनिक देखने. ये भी पक्का नही था कि टिकट मिलेगा या नही. फिर भी उत्साह था. सो पहुच गये गेट पर. तब अप्पू घर भी हुआ करता था. पहला झटका तब लगा जब पता चला कि टिकट समाप्त. अब क्या करे. फ़िल्म आज ही देखनी थी. साथियों ने कहा कल देख लेना. मन नही माना और वही चक्कर लगाने लगे. ..तभी गेट के अन्दर से लड़के लड़कियों का एक ग्रुप आता दिखाई दिया. वो हँसते और शोर सा मचाते आ रहे थे. बाहर आकर उनमे से एक लड़के ने हमें बैचेनी से चक्कर काटते देखा और पूछा 'क्या हुआ, टिकट नही मिला' हमने ना में सर हिला दिया. उसने कहा, कोई बात नही, हम कुछ लोग यही फ़िल्म देखने आए थे लेकिन अब मूड नही है सो वापस जा रहे है. आपको चाहिए तो हम आपको तीन टिकट दे सकते हैं. इतना कहते ही उन्होंने मेरे हाथ में तीन टिकट थमा दिए. अपनी तो निकल पड़ी ... वाह क्या दिन है, आज तो मज़ा आ गया. ऊपर वाले ने आपको भेज दिया और फ़िल्म का जुगाड़ कर दिया. हमने झट से पर्स से पैसे निकले और उन्हें पकडाने लगे, लेकिन ये क्या! उन्होंने यह कहते हुए पैसे लेने से मना कर दिया कि आप तो हमारी दोस्त की तरह हो और दोस्तों से पैसे क्या लेना. हम क्या बहुत कहे, क्या सच में ऐसे लोग भी हैं.... फ़िर भी हमने कहा.. पैसे तो आपको लेने ही होंगे पर वो देवदूतों कि तरह ना न की रट लगाते रहे. आख़िर में बोले कि चलिए... हमें एक कोल्ड ड्रिंक पिला दीजिये और समझये हो गया हिसाब. हमने पूरे उत्साह से उनको 50 रुपये की कोकोकोला पिलाई और अंदर की ओर चल दिए. उधर वो मण्डली भी अपनी कार की तरफ़ बढ रही थी. हम उनकी मदद से कृतार्थ होकर लगातार खुश होकर उन्हें हाथ हिलाकर बाई बाई कर रहे थे. जैसे ही गेट पर पहुंचकर गार्ड को टिकट दिए वो हंसकर बोला 'अप्पूघर जाओगी क्या मैडम'.

हम चकित और भौचक..... देखा तो तीनो टिकट अप्पू घर के थे. हमारे होश फाख्ता, दिमाग सुन्न, आंखों के आगे अँधेरा सा छा गया. आंखों से आंसू निकल पड़े. ये तो हमें सरे आम बेवकूफ बना गये..उधर हमारी साथी भी रूआसी हो गयी. अब क्या करे. उधर वो मण्डली अभी गाड़ी में बैठ रही थी. पता नही दिमाग ने क्या बत्ती जलाई, हम झट से चिल्लाये पकडो उनको, मेरा पर्स मार लिया. गार्ड झट से चिल्ला कर दौडे...गाड़ी में सवार लोग सकपकाए. गार्ड ने गाड़ी के आगे जाकर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर को कॉलर पकड़ कर बाहर निकाला. तब तक हम भी वहा पहुच चुके थे. गाड़ी में सवार लोग बोल पड़े....हमने पर्स नही चुराया, चाहे तो देख लीजिये. हम तब तक उस मजाक और अपमान का बदला लेने के लिए तत्पर हो चुके थे. हमारे आंसू बह रहे थे और गार्ड हमारे आंसुओं से ज्यादा प्रभावित होकर उन्हें डांट रहे थे. शायद बेवकूफ बनाये जाने का गम था या अपमान का गुस्सा .. हम चीख कर बोले.... पुलिस को फ़ोन लगाओ, पुलिस का नाम आते हो मण्डली को पसीने आ गये. उन में से एक ने कान पकड़ कर कहा प्लीज़ गलती हो गयी, अब ऐसा मजाक किसी के साथ नही करेंगे. लेकिन पुलिस को मत बुलाओ. उन्होंने कोल्ड ड्रिंक के पैसे लौटाए और माफ़ी मांगने लगे. लेकिन हमारे मन में तो अपमान की जो ज्वाला भड़क गयी थी. हमने सरे राह उनसे (लड़कियां नही) उठक बैठक लगवाई और फिर उन्हें जाने दिया.

मन में तो हम अभी तक भौचक थे. दिल धाड़ धाड़ कर रहा था. कोई खुलेआम हमें उल्लू बना गया. बाद में बिना फ़िल्म देखे हम तीनो इस समझौते के साथ घर लौट चले कि इस प्रकरण के बारे में कोई किसी तीसरे को नही बताएगा. आज भी टाइटेनिक फ़िल्म देखकर एक बार वो ही बाद याद आ जाती है. जब भी सिनेमा हाल जाते हैं तो वो घटना मन में तैरने लगती है और बिना इच्छा के मन गाने लगता है उल्लू बनाया आपने.
नोट - सभी पाठकों से निवेदन है कि इस घटना के बारे में किसी को ना बताएं.वरना आगे आपको ऐसी सामग्री पड़ने को नही मिलेगी. वैसे कई किस्से है जब हम बेवकूफ बने.

'हम आपके हैं कौन'


बात उन दिनों की है जब हम कॉलेज से बंक मार कर फ़िल्म देखने जाया करते थे. 'हम आपके हैं कौन' फ़िल्म मैंने फस्ट इयर में ऐसे ही 9 बार देख ली थी. उसमे माधुरी और सलमान का प्यार और फ़िल्म में शादी ब्याह का माहौल मुझे रोमांचित कर जाता था. वैसे भी शादी की थीम की फिल्म पहले कम ही आई थी. तो हम सारी लड़कियां मिल कर दूसरे पीरिअड में ही निकल जाया करते थे. घर में बस के किराये के लिए जो पैसे मिलते थे उनसे ही फ़िल्म देखी जाती थी. रोज के 20 रुपए मिलते थे और हम कोशिश करते थी कि हे भगवान् आज यू स्पेशल बस आ जाए तो किराया बच जाए. ऐसे ही किराया बचा बचा कर मैंने 9 बार फ़िल्म देख डाली. हमारा कॉलेज (विवेकानंद कॉलेज) दिल्ही के एक कोने में था और लगभग सभी सिनेमा हाल कनाट प्लेस में थे. सो हमारा गैंग स्टाफ बस में स्टाफ चलाकर (अकेले हिम्मत नही होती थी) कनाट प्लेस पहुँचता और फिर पैदल पैदल सभी हॉल चेक किए जाते. जहा टिकेट मिल जाता वही पर जम जाते. करीब नौ या दस लड़किया होती थी. बाहर किसी को भी एक दूसरे का नाम लेकर पुकारने की मनाही थी. सो हम एक दूसरे को अनु मनु तनु, पिया जिया, टिया जैसे नामों से पुकारते थे. उस दिन भी हम चले ये फ़िल्म १० वी बार देखने. चल तो पड़े मगर पता नही क्यों आज दिल धड़क रहा था लग रहा रहा कि आज ना कर दूँ.. लेकिन सब ने जोर दिया तो चल पड़े. रीगल पर टिकेट मिल गया. पूरा ग्रुप हो हल्ला करते हुए घुस गया. फ़िल्म शुरू हो चुकी थी. सलमान का चेहरा फ़िर मन लुभा रहा था. उसका बड़ा घर, चुलबुला अंदाज़ कह रहा था बस ऐसा ही जीवनसाथी मिल जाए मुझे भी, तो मज़ा आ जाए. माधुरी आई तो उसके स्टाइल, और कपड़ो ने मोहित कर लिया. सोचा हेरोइनो के तो मजे होते है. बस रोज ही मेकयेप और मंहगे कपड़े, शानदार गाडिया. ये सब सोचते सोचते इंटरवल हो गया. जैसे ही लाइट जली तो आगे की सीटो पर नज़र गयी और होश उड़ गये . वहां पापा बैठे थे, अपने सरदार दोस्त के साथ. दोनों का मुंह आगे कि ओर tha. मेंरे तो पसीने छूट गये. अब क्या करू. साथ में बैठी सीमा को बताया तो उसने कहा, फ़िल्म का नाच गाना देख और जब हिरोइन की बहन मरे तो उठकर चल देंगे. उसके बाद तो रोना पीटना मचता है न. और वैसे भी तू रोने लगती है, ऐसे सीन पर. सारे गैंग को कोड वर्ड में समझा दिया गया की आज फ़िल्म बहन के मरने के साथ ही ख़तम कर देनी है. पापा का डर इस कदर बैठा कि मैं इंटरवल के दौरान टॉयलेट भी नही जा पाई. दम साधे सामने देखती रही. जब हॉल का सुरक्ष्कर्मी कही लाइट लाइट मारता तो मैं मुंह नीचे कर लेती. क्या पता पापा कब पीछे देख लें. खैर हीरोंइन की बहन मरी और हम धीरे धीरे निकलने लगे. कुछ शरारती टाइप के लडके चिल्ला पड़े, अरे कहां जा रही है ये टोली, माधुरी की शादी तो देखती जाओ. बाहर पहुंचे तो सिर भारी हो रहा था. लगा जैसे पापा कही पीछे से आ गये तो. घर पहंची तो माँ ने कहा तबियत खराब है क्या. हमने कहा, आज बड़ीi देर तक पड़ती रही ना, सिर में दर्द है. झटपट खाना खाया और बिस्तर में घुस गये. पापा २ घंटे बाद आए. खुश थे ओर उसी फ़िल्म का गाना गा रहे थे. माँ से कहा आज लौटते हुए रीगल से 'हम आपके हैं कौन ' के चार टिकेट ले आया हूँ. कल सब चलेंगे. फ़िल्म देखने.

Monday, July 14, 2008

हमारे नए ब्लोगिये...

राम भाई और अमरेश, ये दोनों ही हमारे नए ब्लोगिये है. हमने बड़े ही उत्साह से इनका ब्लॉग जगत में इस्तकबाल किया और समझेबुल भाषा में बताया कि लिखना कितना जरूरी है. चाहे कविता लिखो या पुराण, चाहे बघारो फिल्मी ज्ञान, लेकिन हर बार ऐसा लिखो,न कम हो किसी का सम्मान. ये दोनों ही बड़े अच्छे पत्रकार हैं नए नए हैं और जाहिर है कि जोश से भरपूर हैं इनके ब्लॉग पर आप अभी से ही काफ़ी कुछ पाएंगे अमरेश का ब्लॉग amareshthegreat.blogspot.com है और हमारे राम भाई का ब्लॉग है apnaparay.blogspot.com
जरूर देखियेगा....

Thursday, July 10, 2008

सत्ता में छुपन छुपाई

लेफ्ट ने सरकार गिराई,
कांग्रेस ने गुहार लगाई,
सपा ने खाई खूब मलाई,
भाजपा ने खुरचन भी न पाई,
उसने फिर हुंकार लगाई,
हाय मार गयी महंगाई.

Wednesday, July 9, 2008

पापा आए मम्मी के रोल में...



जब मैंने मन ( मेरा बेटा) को जन्म दिया तो तरुण (पति) के व्यह्वार में सकारात्मक बदलाव देखा. छोटे बच्चो को गोद में उठाने से कतराने वाले तरुण मन का काफ़ी ख्याल रखते हैं. उसे नहलाना, सुलाना और रात में रोने पर उसे बहलाना सब तरुण ही करते हैं. और ये करते हुए उन्हें किसी तरह की शर्म या संकोच नही होता बल्कि वो सहजता महसूस करते हैं. मैंने जब पूछा तो बोले कि अपने बच्चे से इस तरह जुड़ने में उन्हें सकून और आत्मीयता महसूस होती है. आस पास के भी कई लोग कुछ ऐसा ही करते दिख रहे है लेकिन किसी शर्म के साथ नही बल्कि पूरे मन और खुशी के साथ. आज पापा सिर्फ़ रोटी की जुगाड़ ही नही कर रहे बल्कि बच्चों की परवरिश में भी पूरा योगदान दे रहे है. ये सब देखकर अच्छा लग रहा है. आज से चार पाँच पीढी पहले तक के मर्द बच्चो की देखभाल तो दूर उन्हें गोद में उठाना भी मर्दानगी के ख़िलाफ़ समझते थे. उनके लिए बाप होने का मतलब घर को एक वारिस देने भर से था. घर का काम, बच्चों की देखभाल माँ कि जिम्मेदारी थी. लेकिन अब ज़माना बदल रहा है. ममता और वात्सल्य जैसे शब्द माँ के अलावा पिता के खाते में भी जुड़ते जा रहे हैं. आज के पापा, खाना बनने के साथ साथ बच्चे की देखभाल भी हँसी खुशी करता है. उसकी मर्दानगी काम और जिम्मेदारिओं में विभाजित नही हो रही. आज के पापा ऑफिस की फाइल के साथ साथ बच्चे कि नेपी और सेरेलक तैयार कर रहे है. बड़ी बात ये है कि ये काम वो मजबूरी में नही बल्कि आनंद के लिए कर रहा है. इसमे उसे खुशी मिलती है, अपने परिवार से जुड़ने की खुशी. जबसे परिवार छोटे हुए हैं तो पति पत्नी के बीच काम कि विभाजन रेखा धुंधली हो गयी है. अब दोनों कमाते है और दोनों ही घर के ही ख्याल रखते हैं. बच्चे के लिए रसोई में दूध गरम करना, उसके कपड़े बदलना, उसे नहलाना, रात में लोरी गाना और उसके साथ कुश्ती लड़ना, ये सारे काम पापा को भा रहे हैं. यहाँ तक कि शादी और पार्टी में भी पापा अपने बच्चे को सँभालने में मस्त देखे जा सकते है ताकि मम्मी चैन से खाना खा सके और पार्टी का मज़ा ले सके. दिन भर ऑफिस से तक कर जब पापा घर आए तो बच्चा उन्हें देखकर खुशी से झूम जाता है, मम्मी कि गोद की बजाये उसे पापा की गोद भाती है तो पापा के प्यार चार गुना बढ जाता है. ऐसे में कौन पापा होंगे जो अपने बच्चे के लिए ये छोटे छोटे लेकिन खुशी देने वाले काम करने से परहेज करेंगे.

समीर भाई का बचपन...

समीर बोले तो हवा का झोंका....कुश के साथ कोंफी पीने वाले लोग वाकई बेहतरीन लिखते हैं. रंजू जी, समीर भाई. का लेखन शानदार है. समीर भाई काम के साथ साथ इतना वक्त कैसे निकाल लेते है, समझ में नही आता. हम तो चाह कर भी सामंजस्य नही बिठा पाते. कोंफी के दौरान इनकी मस्ती देखकर कुश के साथ कोंफी पीने की इच्छा कर रही है. वैसे में कोंफी की शौकीन तो नही पर ऐसी वार्ताओं का मोह कौन छोड़ देगा... कुश भी खासे दिलचस्प इंसान लगे. ..खेर... सचमुच समीर भाई का बचपन शानदार रहा. कभी कभी लगता है कि गावं में बड़े हुए लोगो का बचपन ज्यादा मस्ती और मजे वाला होता है, हम तो शहर के बच्चे पता ही नही चला कब बड़े हो गये. उनके बचपन के वाक़ये इतने मजेदार लगे कि एक मन किया कि काश में उनकी छोटी बहन होती तो बचपन में उनका सानिध्य मिलता और में भी ये मस्ती कर पाती. वैसे मस्ती तो हमने भी खूब की हैं पर वैसी नही जो समीर भाई ने की. . ..अगली पोस्ट में अपनी कुछ बचपन की यादों को लिखने की कोशिश करेंगे. ..सुन रहे हैं क्या समीर भाई...

Saturday, July 5, 2008

मेरा मन

इक छोटा सा बच्चा सा है मेरा मन,
मां कहती है बड़ा अच्छा सा है मेरा मन
जिन्दगी की चिलचिलाती धूप में,
रसभरे अंगूरों का गुच्छा सा है मेरा मन

Friday, July 4, 2008

मेरा मन

इक छोटा सा बच्चा सा है मेरा मन,
मां कहती है बड़ा अच्छा सा है मेरा मन
जिन्दगी की चिलचिलाती धूप में,
रसभरे अंगूरों का गुच्छा सा है मेरा मन

एक आग है

एक आग है वो जो घरभर को जला दे, एक आग है वो जो धुआं सा उठा दे.
गर आग ये लग जाए तो रहबर को सज़ा हो जाए......
हम आग मोहब्बत की दामन में लपेटे हैं. उनके दिल में जो भड़के तो मज़ा हो जाए.

Thursday, July 3, 2008

एक्सेस डिनाइड

जब से भारत में कोरपोरेट की आंधी आयी है, तब से हर ऑफिस की शान और आन बढ गयी है. इसी क्रम मैं हमारे ऑफिस में भी कोरपोरेट का रंग चढा और हमारा ऑफिस भी हाईटेक हो गया. हम ठहरे कलमकार जीव. कलम घिसते थे, फिर कंप्यूटर पर की बोर्ड बजाने लगे और अब लेपटोप पर उंगलियां फिरातें है. जमाना आगे बढ रहा है ना, सबका काया कल्प होना चाहिए. तो हमारा ऑफिस भो बदल गया. नई बिल्डिंग, नया फर्नीचर ( गद्दे इतने बड़े जिसपर बैठकर आदमी चूहा नजर आए)., कांच की दीवारें, लिफ्ट, शानदार लाइटिंग, गेस्ट रूम्स कैंटीन (गाने सुनते हुए खाइए.). मतलब हर चीज बिंदास. लेकिन इन सारे सुविधाओं के साथ एक बहुत बड़ी असुविधा भी चली आई.
उस हाईटेक बला का नाम है थम्ब डिटेक्टर यानि वो इलेक्ट्रोनिक सुरक्षा प्रणाली जो अंगूठे की छाप लेकर ही दरवाजा खोलती है. इसे थम्ब स्केनर भी कहते है. हमारे मालिको को ये पसंद थी लिहाजा आनन् फानन में सभी के अंगूठों के निशान लिए गये. ये निशान देते हुए दिमाग ने सोचा कि हम पड़े लिखे पत्रकार बिरादरी के लोग अंगूठा लगा रहे हैं या अपने निरक्षर होने का सबूत दे रहे है. खैर अंगूठा लगाया और 'भिगोया, धोया और हो गया' वाली स्टाइल में वेरीफाई हो गया. असल परेशानी तो मशीने लगने के साथ शुरू हुई. ये कमबख्त अंगूठा पराया हो गया. ऑफिस में घुसने से पहले गेट पर लगी मशीन द्रोणाचार्य की तरह अंगूठा मांगती और हम अंगूठा दे दे कर परेशान हो जाते लेल्किन मरी मशीन है कि बार बार कहती एक्सेस डिनाइड. अब बिना अंगूठा जांचे मशीन गेट नही खोलेगी और हम ऑफिस में नही घुस पाएंगे. अब करो किसी और भलेमानुस का इन्तजार जो अपने अंगूठे के दान से हमें अंदर धकेल सके. कभी कभी तो स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती जब दूसरे महानुभाव का भी अंगूठा नकार दिया जाता और मशीन किसी मधुबाला कि तरह मनवांछित का अंगूठा लेने से पहले गेट नही खोलेंगी वाली मुद्रा में रूठी रहती, हम भौचक से गेट पर खड़े रहते और सोचते कि यहाँ आदमी से ज्यादा औकात उसके अंगूठे को दे दी गयी है. कभी कभी बाथरूम गये तो वापिस लौटने में डर लगता. मशीन रूठ गयी तो फ़िर कांच बजा बजा कर अन्दर के लोगो से गेट खोलने की गुहार करनी पड़ेगी. राहत की बात ये थी ही कांच की आर पार दिखाई देता है.
ज्यादा परेशानी ये कि मशीन ऑफिस के हर दरवाजे (बाथरूम और कैंटीन को छोड़कर) पर सीना चौडा किए खड़ी थी. किसी भी काम से कही भी जाईये और इस मशीन से लड़िये. कही ये आपका अंगूठा स्वीकार कर लेगी और कही पर बेशर्मी से कह देगी एक्सेस डिनाइड. ये एक्सेस डिनाइड हम पर हावी होता जा रहा था. लगता था जिन्दगी एक्सेस डिनाइड होती जा रही है. रोज नई नई तरकीब से अंगूठा लगते और हार जाते.
दिल को तसल्ली देने वाली बात यही थी कि हमारे मालिक और बड़े अफसर भी इस मशीन से उतने ही, बल्कि हमसे कुछ ज्यादा ही त्रस्त दिखे. मशीन उस वामपंथी मजदूर की तरह थी जो मालिको का हाथ हो या अंगूठा स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझती थी. सच बड़ा अजीब, या कहे कि सकून सा लगता था जब बड़े अफसर या मालिक मशीन को अंगूठा दीखते और मशीन उन्हें कहती एक्सेस डिनाइड. मालिक छिड़कर फिर अंगूठा दबाते और इस बार जरा जोर से. लेकिन मशीन मालिक और मजदूर सब बराबर कि मुद्रा में बेखबर रहती. तब मालिको को भी किसी छोटानुभाव की मदद लेनी पड़ती. मदद लेने वाला तो खेर आदत के मुताबिक भूल जाता लेकिन मदद देने वाला कई दिनों तक इस मदद की चर्चा करके लोगो की वाहवाही लूटता. सच अपने ही ऑफिस में बेगाने हो गये है, कोरपोरेट कि दुनिया में अनजाने हो गये हैं. कभी कभी जब मशीन रूठ जाती है तो अंगूठा आड़ा तिरछा और उल्टा लगा कर देखते हैं, खुंदक में आकर कई बार तो पैर का अंगूठा लगाने का विचार भी किया लेकिन शिस्टाचार के चलते ऐसे ना कर सके. कभी कभी जिस दिन मशीन उदार मन से परमिशन ग्रांटेड कहती है तो लगता है कि ऑफिस में घुसने की नही बल्कि जीने की परमिशन मिल गयी.
पिछले दिनों चर्चा हुई कि क्यों न अंगूठे की बजाय सभी के गलो में इलेक्ट्रोनिक कार्ड टांग दिए जाए. कार्ड मशीन से लगाओ और अंदर जाओ. लेकिन कुछ बड़े लोगो को ये सुझाव पसंद नही आया कि वो गले में पट्टा डाले घूमे. वैसे भी गले में कम्पनी के नाम का पट्टा डाले कई लोग बसों और मेट्रो में दिख जाते है. लगता कि घर में घुसने के लिए भी कार्ड लगाते करते होंगे.
फिलहाल मशीन का रूठना और मनाना जारी है, उसकी दया हो तो अन्दर जाते है और उसकी दया न हो तो अंगूठा और मुहं दोनों लटकाए किसी के आने का इन्तजार रहाता है. कोई आए तो ले जाए, हमारी लाख दुआये पाये.

Wednesday, July 2, 2008

क्या कश्मीर हमारा नही


कश्मीर में अमरनाथ यात्रा बोर्ड को दी गयी जमीन का विरोध देखकर लगता है कि कश्मीर हिन्दुस्तान का नही पकिस्तान का हिस्सा है और हिंदू वहा शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं. राज्य सरकार का रवैया भी हैरान कर देने वाला था. अमरनाथ यात्रा हिंदुओं की आस्था का प्रतीक ही नही बल्कि हिंदू मुस्लिम एकता की एक मिसाल है. हिंदुओं को यात्रा स्थल तक पहुँचने का काम मुस्लिम करते हैं. वो भी पूरी लगन के साथ. दशकों से ये मिसाल चली आ रही थी कि इसे विराम देने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है. यात्रिओं के लिए दी गयी जमीन का विरोध राजनीति रंग ले चुका है. क्या कश्मीर केवल मुस्लिमों का है. क्या हिंदुओं का यहाँ कुछ नही. ये हिन्दुस्तान का हिस्सा है. और यहाँ की जर-जमीन पर हिंदुओं का भी उतना ही हक है जितना मुस्लिमो का. कुछ लोगो के विरोध को देखकर राज्य सरकार ने जमीन देने का फ़ैसला रद्द कर दिया जिससे ये साबित हो गया कि सरकार राज्य का नही बल्कि अपने वोट बैंक का ज्यादा ध्यान देती है. आख़िर वन क्षेत्र की थोडी सी जमीन देने से क्या हरियाली ख़तम हो जाती. क्या डल झील पर शिकारे बनाने से प्रकृति दूषित नही होती. और अमरनाथ यात्रिओं के लिए इस जमीन पर बनाये गये निर्माण तो अस्थाई होते. फ़िर इतना बवाल क्यों. इसके पीछे अलगाववादी नेताओं के वो धारणा काम कर रही है कि कश्मीर उनका है और हिंदुओं या हिन्दुस्तानिओंका नही. ऐसे में जब बोर्ड के लिए जमीन दी गयी तो उनको लगा कि उनकी जमीन पर कब्जा किया जा रहा है. सरकार एक बात तो मान ले कि उनसे ढुलमुल रवैये के कारण कश्मीर हमारे हाथ से निकलता जा रहा है. क्या कश्मीर की सुरक्षा का जिम्मा केवल सुरक्षा बलों का है. सरकार को जमीन नही लोगो के दिलों को सुरक्षित करना चाहिए जो अलगाववादिओं के शिकंजे में आ गये है. ऐसा ही चलता रहा हो कश्मीर की आवाम अपने मुल्क की बजाये दूसरे मुल्क का साथ देगी और हम देखते रह जायेंगे. अलगाव वादिओं के प्रति सख्त रवैया अपना कर सरकार अवाम में फ़ैल रहे जहर को रोक सकती है. अलगाव वादिओं से बातचीत के बजाये उन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए ताकि जनता के दिलों में फ़ैल रही नफरत रुक सके. सुरक्षा बलों पर हो रहे हमले और उनका विरोध देश के प्रति बढ रही उपेक्षा का प्रतीक है. जो दिन पर दिन बढता जायेगा और एक दिन चरम पर आ जाएगा.इससे बचना होगा.लोगो के दिलों मे देश के लिए खोया प्यार फ़िर से लाना होगा.