Wednesday, December 10, 2008

तेरह किलो का आलू ....

आप चाहे मानो या ना मानो आलुओं का बाप आ चुका है। दक्षिणी लेबनान में एक किसान के खेत में ११.३ किलो का आलू निकला है। इसे दुनिया का सबसे भारी आलू कहा जा रहा है। बेरूत से ८५ किलोमीटर दूर रहने वाले किसान खलील सेमहत इसे पाकर फूले नहीं समा रहे। उनका कहना है कि मैं छोटी सी उम्र से खेती कर रहा हूं लेकिन मैंने पहली बार इतना बड़ा आलू देखा है। सेमहत ने कहा कि इस भारी भरकम आलू को निकालने के लिए मुझे अपने दोस्तों को बुलाना पड़ा। उन्होंने कहा कि मैं उपज बढ़ाने के लिए कोई उर्वरक या रसायन नहीं प्रयोग करता हूं। अभी तक गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकॉर्ड में ब्रिटेन के स्लोआन के खेत से पैदा ३.५ किलोग्राम का आलू दर्ज है। खाद्य सुरक्षा और गरीबी दूर करने के लिए वर्ष २००८ को इंटरनेशनल इयर आफ द पोटैटो के तौर पर मनाया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट क ो ब्रिटेन प्रायोजित क र रहा है जिससे सब्जियों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके ।
उम्मीद : काश भारत भी कोई ऐसा प्रोजेक्ट चलाए जिससे खाद्यान्न के इस देश में भूख से मरने वालों की संख्या में कमी आ सके।

Monday, December 8, 2008

....और मोबाइल चोरी हो गया

रविवार की रात को एक हादसा हमारे साथ हो गया। पतिदेव का मोबाइल चोरी हो गया। दरअसल हम जैकेट लेने के लिए रविवार की रात को अक्षरधाम मंदिर के पास फ्लाइओवर के नीचे चल रहे लुधियाना स्वेटर मेले में गए। नोएडा मोड़ पर लगने वाले इस मेले में हम पहले भी जा चुके थे और यहां बच्चे के लिए अच्छे स्वेटर मिल गए। हमने सोचा कि चलो एक आध जैकेट यहां से ले ली जाए। खाना बनाने के बाद आठ बजे हम वहां गए तो कुछ खास भीड़ नहीं थी। यही कोई ८ या दस लोग थे और १०-१२ लोग मैनेजमेंट के थे। बच्चा (आतंकवादी और शायद मोबाइल चोरी होने के लिए बड़ा जिम्मेदार वही है) हमारे साथ था और जरूरत से ज्यादा उछलकूद कर रहा था। पतिदेव जैकेट देखने लगे और मैं बच्चे को पकड़ रही थी। अचानक बच्चा उछलकूद करने लगा। मैं उसको पकडऩे के लिए यहां वहां दौडऩे लगी। तभी पतिदेव को एक जैकेट पसंद आई और उन्होंने अपनी पहनी हुई जैकेट उतारकर मुझे दी। मैंने जैकेट पक ड़ ली और बच्चे को कसकर गोद में पकड़ लिया। लेकिन ये शरारती महाराज कहां रुकने वाले थे। इन्होंने जोर मारा और मेरे हाथ से कूद पड़े। इनके गिरने के डर से मैने जैकेट को हाथ में मरोड़ लिया और इनके पीछे भागी। तभी दो एक लोग मुझसे टकराए और काम हो गया। मेरा ध्यान तब भी नहीं गया। इन्होंने जैकेट पसंद करके काउंटर पर भिजवाई और जैसे ही अपनी जैकेट पहनी, इनके मुंह से निकला ओह! मोबाइल गया। मेरे तो पसीने छूट गए। हमने सारा स्टाल छान मारा। लेकिन कहीं नहीं मिला। फिर एक दो लोगों के फोन से बैल भी मारी लेकिन चोर ने उसकी बैटरी निकाल दी थी। बड़ी मायूसी से हम लौट चले। ७५० रुपए की जैकेट हमे ६००० रुपए की पड़ी।

नन्हा आतंकवादी - नन्हे आतंकवादी पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन क्या क रूं उस पर गुस्सा निकाल नहीं पा रही थी। क्योंकि वो अभी भी उतनी ही उछलकूद कर रहा था और हंस रहा था। मोबाइल में दो सिम कार्ड और एक एक जीबी का मेमोरी कार्ड था। पतिदेव ने तुरंत पांडव नगर थाने जाकर रिपोर्ट दर्ज कराई और एफआईआर की कापी लेकर घर लौटे।
लापरवाह एमटीएनएल- उधर मैं एमटीएनएल के कस्टमर केयर को नंबर लगा रही थी लेकिन कोई नंबर उठा कर काट रहा था। ऐसे में एमटीएनएल पर बड़ा गुस्सा आया। सच में कितने लापरवाह है इस कंपनी के लोग। कल को इस नंबर को दुरुपयोग हुआ तो कंपनी इस चीज की जिम्मेदारी नहीं लेगी। आखिर कस्टमर केयर २४ घंटे खुलता है लेकिन अधिकारी क्या नींद लेने के लिए आते हैं। आज ईद की छुट्टी है तो जाहिर सी बात है कि आज एमटीएनएल का दफ्तर आज खुलेगा नहीं। कल तक पतिदेव को बिना मोबाइल के रहना होगा।
शक - मुझे स्टाल के मैनेजमेंट पर पूरा शक है। वहां कई लोग थे जो यहां वहां (काम न होने पर भी) घूम रहे थे और लोगों से टकरा रहे थे। एक लड़की ने बताया भी कि सुबह से तीन मोबाइल यहां गायब हो चुके हैं। लेकिन हम भी क्या करते, लोगों की तलाशी तो नहीं ले सकते थे। लग गया था पांच हजार का फटका। सच बुरा ही रविवार था। इस महीने का बजट बनाते समय हाथ कुछ टाइट रखना होगा।

Friday, December 5, 2008

आज हमारा अवतार दिवस

आज हमारा अवतार दिवस है। यानी बर्थडे। हम आज ही के दिन धरती पर उतरे थे। आज ही के दिन बाबरी विध्वंस हुआ और इसी कारण कई लोग इसे शोक दिवस और कई लोग इसे विजय दिवस के रूप में मनाते है। बहरहाल हमारे घर के लोग तो उसे उल्लास के तौर पर मनाते है। रात को बारह बजे पतिदेव ने विश किया और सुबह प्यारे बेटे ने प्यारी सी पप्पी दी। बच्चे को मां के घर छोडऩे गए तो मां ने भी खूब आशीष दिए। कहा खूब खुश रहो। ८ बजे बहन का फोन आया और नौ बजे भाई का। सबको याद था। मन को कुछ तसल्ली हो रही थी कि कुछ लोगों को तो मेरा दिन याद है। हालांकि ज्यादा सेलीब्रेट करने की गुंजाइश नहीं बन पा रही। कारण साफ है कि महीने का आखिरी दौर चल रहा है और मन के बर्थडे (पिछले शनिवार को मनाया था) पर पैसा खर्च हो चुका है। फिर भी कुछ गिफ्ट पर हमारा हक भी बनता है।
आफिस आए तो आश्चर्यजनक रूप से कई लोगों को हमारा अवतार दिवस याद था। सभी पार्टी की जिद कर रहे थे और जेब मना कर रही थी। सबको टाल दिया कि कुछ समय बाद देंगे। हां चाय पानी प्रायोजित किए जा सकते हैं। आज जबकि सारा हिंदुस्तान बाबरी को याद करता है, कुछ लोग इस बावरी को भी याद किया करते हैं। जयपुर से अभिन्न मित्र राजीव जैन के फोन का इंतजार है। वो हमारा बर्थडे याद रखते हैं और हमे उनका बर्थडे टीवी के न्यूज चैनल याद (११ अक्तूबर-अमिताभ बच्चन का जन्मदिन) दिला देते हैं।
आज जल्द ऑफिस से निकल जाएंगे और पतिदेव के साथ कुछ तफरी का प्रोग्राम है। अभी तक सब अच्छा चल रहा है और ईश्वर से प्रार्थना है कि सब अच्छा चले। ब्लॉग लेखक होने के नाते ब्लॉग जगत के साथियों से जुड़ी हुई हूं और इस नाते आप सभी के प्यार और आशीर्वाद की हकदार हूं।

Wednesday, December 3, 2008

नन्हे मोशे का भविष्य

क्या होगा उस नन्ही सी जान का...। कौन उसे वो ही लाड़ देगा, जो उसके मां-बाप दिया करते थे। क्या उसका भविष्य वैसा ही हो पाएगा, जैसा उसके मां-बाप ने संजोया था। वो रात में किसके आंचल में छिपकर सोया करेगा। रात में उठने पर मां की गंध न महसूस करने पर वो कैसा महसूस करेगा। असहाय और आंखों में आंसू लिए मैं कई दिनों से ये सोच रही थी। डा. अनुराग के ब्लाग ने आंसुओं का सैलाब और बढ़ा दिया। दिल भर्रा रहा है और बैचेनी सी है। बार बार मोशे की तुलना अपने खेलते हुए बेटे से कर सकती हूं। क्या कसूर है मोशे का, अपने जन्मदिन का केक काट रहा था और मां बाप को खो बैठा। क्या ये जन्मदिन वो कभी भूल पाएगा। मोशे अभी नासमझ है। लेकिन इसी दौर में बच्चे को मां बाप के प्यार, दुलार और संरक्षण की सबसे ज्यादा जरूरत रहती है। मां का लाड़ प्यार अब कौन करेगा। उसकी किलकारियों पर कौन उसे गोद में उठाकर झूमेगा। बेचारा बच्चा, उसे अभी तो पता ही नहीं कि उसके साथ ये क्या हो गया है। .......सच कह रही हूं, उसका ख्याल आते ही आंसू निकलने लगते हैं और मेरे पति कहते हैं कि खुद को संभालो। लेकिन उस बच्चे को कौन संभालेगा जो अनाथ हो चुका है और जिसका भविष्य वैसा नहीं बन पाएगा, जैसा उसके मां-बाप चाहते थे। गला भारी हो चुका है और अब और नहीं लिख पा रही हूं। आप समझ सकते हैं मां की भावना, जो हर बच्चे को एक जैसा समझती है। बस उसी के चलते लाचार हूं।

Wednesday, November 26, 2008

मुंबई पर हमला लेकिन कहां गए राज ठाकरे

मुंबई पर आतंकी हमला। समुद्र के रास्ते बाहर से आए इन आतंकियों से निपटने के लिए पुलिस, सेना और कमांडो मुस्तैदी से जमे हुए है। कई अधिकारी शहीद हो चुके हैं लेकिन 'दि ग्रेट मराठी मानुस राज ठाकरे ’ कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। कहां गए अपने ठाकरे साहब। मुंबई में बसे बाहरी लोगों के लिए आतंक का पर्याय बने राज ठाकरे को इन बाहरी आतंकियों से लोहा लेना चाहिए और उन्हें मुंबई से बाहर करना चाहिए। यही नहीं ठाकरे के कार्यकर्ताओं को सेना की मदद करनी चाहिए। लेकिन राज ठाकरे हैं और उनकी मनसे सेना है कहां। अब र्कोई नजर नहीं आ रहा लेकिन कुछ दिन पहले सब शेर की तरह गरज रहे थे कि मुंबई मराठियों की है। मराठियों के हितों के लिए जान देने का दावा करने वाले राज ठाकरे इस समय डर के मारे अपने बिल यानी घर में छिपे बैठे हैं। मानो आतंकी अब उन पर ही हमला करने वाले हैं। सच कितने डरपोक और स्वार्थी है राज ठाकरे जैसे नेता। राजनीतिक लाभ लेने के लिए मराठी मानुस को मुद्दा बनाकर अपने ही देश के लोगों पर कहर बरपाते हैं। लेकिन जब बाहरी दुश्मन देश पर हमला करते हैं तो बिल में छिपकर बैठ जाते हैं।
ये संकट का समय है। ऐसे में राजनीति छोड़कर आपसी सहयोग करना चाहिए। अभी टीवी देख रही थी कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आज तक न्यूज चैनल पर बयान दे रहे थे। ज्योंहि संवाददाता ने इस संबंध में एक राजनीतिक सवाल पूछा, मोदी ने उसे लताड़ दिया। उन्होंने कहा कि यह साझा संकट है और इस समय राजनीतिक सवाल नहीं पूछने चाहिए। उन्होंने कहा कि जिस तरह ९/११ के हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद पर कड़ा रुख अपनाया है उसी तरह भारत को भी इस संबंध में कड़ी और ठोस नीति अपनानी चाहिए। मै भी मोदी की बात से सहमत हूं।

मां दा लाडला बिगड़ गया

मां दा लाडला बिगड़ गया-सब गा रहे हैं। बुरी बात को हंस हंस कर गा रहे हैं और जश्न मना रहे हैं। लाडला भी दिल खोलकर हंस गा रहा है और मां भी शान से अपने लाडले की करतूत पर वारी जा रही है। धन्य है मार्डन मां और धन्य है उसका लाडला। दोस्ताना का ये गीत आजकल हर गली और मोहल्ले में सुनाई दे रहा है। बच्चे से लेकर बड़े भी गा रहे हैं। मां को भी ऐतराज नहीं। आखिर हो भी क्यूं। बिगड़ गया तो बिगड़ गया। मिडिल क्लास मां जानती है कि गाना भी फिल्मी है और बेटा भी। उसे एक भरोसा है कि बेटा मोहल्ले और शहर भर की लड़कियों को छेड़ लेगा लेकिन किसी मर्द की तरफ आंख उठाकर नहीं देखेगा।

बेटी गा रही है-तू साला काम से गया और बेटा गा रहा है-मां दा लाडला बिगड़ गया। सिनेमा दोनो को बिगाडऩे पर तुला है। ना ना ....हम यहां सिनेमाई आदर्श झाडऩे नहीं जा रहे, हम तो बात कर रहे हैं उन गानों की जो बिगाड़ रहे हैं लफ्जों की सुनहरी और प्यारी दुनिया के सुर और ताल। गोलमाल रिटर्न का-तू साला काम से गया। जाने तू-पप्पू कांट डांस साला। और भी जाने क्या इश्क कमीना, इश्क निकम्मा, कम्बख्त इश्क। अगर इतना ही बुरा है इश्क तो क्यों करते हो प्यारे। गानों में फूहड़ता और जल्दबाजी को डाल कर इंस्टेंट बनाया जा रहा है। ओए ओए, ओले ओले के बाद अब दुनिया की ठां ठां ठां हो रही है। दिल अब किसी के प्यार में करवटें नहीं बदलता, दर्दे डिस्को करता है।

Tuesday, November 25, 2008

फैशन का है ये जलवा

कल रात को हमने फ़िल्म फैशन देखी. प्रियंका चोपडा की मुख्य भूमिका से सजी ये फ़िल्म फैशन जगत की सही सच्चाई को बया कर रही थी. पूरी फ़िल्म में प्रियंका एक ऐसी मॉडल के किरदार में थी जो सुपर मॉडल बनने के लिए कुछ नही, बहुत समझौते करती जाती है अपना घर परिवार, शहर,दोस्त और प्यार सब छोड़ देती है. और जब उसे ठोकर लगती है तो वो पाती है कि उसके हाथ में कुछ नही है.. फ़िल्म में सोनाली के किरदार में कंगना ने बेहतरीन काम किया है और जेनेट के रोल में मुग्धा अच्छी लगी है. फ़िल्म में दिखाया गया है कि समझौते करने के बाद लड़किया अपने सुपर मॉडल के सपने पूरे कर रही हैं और ऊपर जाने की धुन में वो नीचे गिरती जाती है. ये दुनिया कभी किसी की नही हुई ना शोनाली की और न ही मेघना की. फ़िल्म में लिव इन भी दिखाया गया है. फ़िल्म में दिखाया है कि यहाँ अच्छे लोग भी हैं और वो बाद में काम भी आते है. जेनेट जैसी लड़किया भी है जो सम्लेंगिक युवक से इसलिए शादी कर लेती है की पति न सही अच्छा घर और अच्छा दोस्त तो मिल जाएगा. सरीन के रूप मैं एड एजेंसियों के मालिको का असल चेहरा सामने आया है. पार्टी में जाने पर नई मॉडल को पैसे मिलने की बात भी नई लगी. प्रियंका का प्रेग्नेंट होना और शोनाली का नशे की लत मैं सड़क पर आ जाना संवेदनशील कर गया. पूरी फ़िल्म मैं प्रियंका को एरोगेंट दिखाया गया है. आई ऍम बेस्ट के भ्रम मैं रहने वाली प्रियंका जब सुपर मॉडल का खिताब छिनने के बात नशा करती है तो कोकीन के नशे में किसी अश्वेत के साथ हमबिस्तर हो जाती है और नशा खुलने पर अपनी दशा पर पछताती है. फ़िल्म का ये सीन जबरदस्त और फैशन के दुनिया का घिनोना चेहरा दिखा गया.
कुल मिलाकर फ़िल्म अच्छी थी. मधुर ने फ़िल्म और फैशन के साथ सही न्याय किया है. फ़िल्म नेट से डाउनलोड की थी. रात को डेढ़ बजे फ़िल्म देखकर सोये तो हमारा मन्नू भी जग रहा था. सुबह ऑफिस की भागमभाग रही पर अब नींद आ रही है. अभी दिल और आँखों में फैशन का ही खुमार है.

Monday, November 17, 2008

जरा बताइए.. नेट कनेक्शन कौन सा लें

कुछ दिनों के आराम - विराम के बाद आखिरकार हम वापिस आ गये हैं. हालात ऐसे थे कि कुछ लिख नही पा रहे थे. घर पर व्यस्तता और ऑफिस में काम की अधिकता के चलते लिख और पढ़ नही पाये. घर पर कंप्यूटर लगवा लिया है, जल्द ही नेट भी लग जायेगा. हम कुछ पुराने मित्रो से चेट करेंगे और पति महोदय अपना टेली का काम करेंगे. अभी विचार कर रहे हैं. कि कोई सस्ता सा नेट कनेक्शन मिल जाए तो मज़ा आ जाए. एयरटेल और टाटा पर सोच रहे है. वैसे आप बताये कौन सा अच्छा रहेगा.
अपने डेस्कटॉप पर अपने मन की फोटो भी लगा ली है और बफर साउंड वाले स्पीकर भी ले आए है. खूब मज़ा आ रहा है आजकल . नेट नही है तो गेम में जाकर सोलिटर (ताश के पत्तों को व्यवस्थित करना) ही खेल लेते है. जब नेट लग जायेगा तो सबको खूब पढ़ा करेंगे. फ़िर तो टिप्पणी भी निसंकोच दिया करेंगे. अभी तो ऑफिस में समय की कमी के चलते कभी कभी लिख पाते थे और कभी कभी ही पढ़ पाते थे. फिलहाल इतना ही...अब जल्द ही अपने कंप्यूटर पर लिखेंगे --------------

Monday, October 20, 2008

राज की टीआरपी और मराठी

राज ठाकरे बोले जा रहे है बोले जा रहे है. जय महाराष्ट्र, जय मराठी और जय मुम्बईकर . सब सुन रहे है. बाहर से आए बेचारे लोग उनकी गुन्डागर्दी का शिकार हो रहे है और मुंबई पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए सही समय का इन्तजार कर रही है. राज ठाकरे को इतना पता है कि शिवसेना से अलग होने के बाद मुंबई में अपनी पहचान बनाने के लिए टीआरपी को बढ़ाना जरूरी है. और टीआरपी कैसे बड़ाई जाती है, इसका नुस्खा शायद उन्होंने (बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा) वाली कहावत से ली है. सो राज भाई जुट गये है बदनाम होने में. कभी मारपीट तो कभी उत्तेजक बयान देकर. कभी किसी अभिनेता के पोस्टर फाड़ कर तो कभी किसी पुलिस अधिकारी को धमकी देकर वो नाम कमा रहे है. कमाल है इतना नाम तो शिवसेना ने भी नही कमाया. लेकिन राज जानते नही है कि टीआरपी बढ़ाने के जो तरीके वो अपना रहे है, वो टिकाऊ नही हैं. यानि कि चुनाव में वो काम नही आयेंगे. मुंबई में भले ही लोग उनके डर से कुछ ना बोलते हों लेकिन सब इस बात को मानते है कि उनकी गुंडागर्दी हद से ज्यादा बढती जा रही है. राज शायद ये भूल गये हैं कि उनके जैसे नीति अगर दूसरे राज्यों में भी अपनाई गयी तो वहा रह रहे मराठी सबसे पहले उनका शिकार बनेंगे.. हो सकता है कि मुंबई में बाहरी लोगो के साथ हो रहा सलूक दूसरे प्रदेशों में बसे मराठिओं के साथ भी हो. तब राज क्या करेंगे. हो भी यही रहा है मुंबई के नाम पर लोगो में कड़वाहट घुलने लगी है. अगर ऐसा ही रहा तो वहा रोजगार ख़तम हो जायेगा. मुंबई में बसे सभी लोग तो मराठी नही है. यहाँ सब जगह से आए लोग है जिन्होंने अपनी जिन्दगी के अच्छे साल मुंबई में जिए और मुंबई को भी बहुत कुछ दिया. ऐसे लोगो कि संख्या भी काफ़ी है और यही लोग चाहे तो मिलकर राज को सही रास्ते पर नला सकते है. केवल मुठी भर कम अकाल कार्यकर्ताओं के दम पर उचल रहे राज को सबक सिखाया जन ही चाहिए वरना किसी भी प्रदेश में बाहरी लोग सुरक्षित नही रहेंगे.

Tuesday, October 14, 2008

क्या पति भी करवा चौथ का व्रत करे

दो दिन बाद करवा चौथ का व्रत है. मैं तो इस व्रत को कर रही हूँ लेकिन मेरे पति भी इस व्रत को साथ में रखने की जिद पाले हैं. मैं उन्हें समझा समझा कर थक गयी कि ये व्रत महिलाओं के लिए है लेकिन वो नही मानते. उनका तर्क है कि जब तुम अगले जनम में मुझे पाने के लिए पूजा कर सकती हो तो मैं भी अगले जनम में तुम्हे पाने के लिए पूजा क्यों नही कर सकता. मैं दुविधा में हूँ. एक तरफ़ तो खुशी है कि चलो वो मेरा साथ दे रहे हैं और मेरी भावनाओं का सम्मान कर रहे हैं. दूसरी तरफ डर हैं कि कही सासू माँ को पता चल गया तो कहेंगी मेरे बेटे को जोरू का गुलाम बना लिया. आजकल के पति भी यही चाहते है कि केवल पत्नी ही क्यों दिन भर भूकी प्यासी रहे क्या केवल पत्नी को ही वो पति रूप में चाहिए. क्या वो अगले जनम में उसे ही पत्नी के रूप में नही पाना चाहते. यदि ऐसा नही है तो किसी के भी व्रत का कोई औचत्य नही है.

सच में ये परस्पर प्यार और आस्था का त्यौहार है. में अगले जनम में उनका वरन करू और वो मुझे ही अगले जनम में अपने साथ पाये. यही प्रार्थना भगवान् सुनेंगे. भगवान सुनते है या नही ये तो नही जानती लेकिन इतना जानती हूँ कि त्यौहार की तेयारी और साथ साथ व्रत करने से दोनों में प्यार बढ़ता है. यही प्यार तो परिवार की नींव है और हम तो इस जनम के बारे में सोचने वालो में से हैं. ये जनम प्यार से गुजार लो, अगला जनम अपने आप तर जायेगा. वैसे भी कहा जाता है कि मानव योनि एक बार ही मिलती है और वो हम इस जनम में प्यार से भोग ले यही काफ़ी है.

नोट _ इस बार में करवा चौथ पर भगवान् से यही मांगूंगी कि अगले जनम कि प्लानिंग न करके इस जनम में भरपूर प्यार का कोटा दे दे. दोनों में आपसी समझ और प्यार ऐसे ही बना रहे, आपको भी यही दुआ करनी चाहिए.

Monday, October 6, 2008

सुधर जाओ अमर सिंह

सुधर जाओ अमर सिंह
बाटला हॉउस मुठभेड़ पर अमर सिंह की तजा टिप्पणी उनकी वोट बेंक की राजनीती का हिस्सा भर हो सकता है लेकिन उनके बयान शहीद एम् सी शर्मा के परिवार और हिंदुस्तानिओं के दिलों पर कितना बुरा असर दाल रहे हैं ये वो नही जानते. सुर्खिओं में रहने के ये शिगूफे अमर सिंह बखूबी जानते है और यही कारण हैं कि लोग उन्हें राजनीति का दलाल कहते है. लोग सही कह रहे है. एक तरफ़ शहीद का अपमान और दूसरी तरफ़ आतंकिओं को होनहार स्टुडेंट (क्या छात्र आतंकवादी नहीं हो सकते) कहना छिछोरेपन की हद है. कभी सोनिया गांधी को लेला कहने वाला ये आदमी कुछ दिन पहले सोनिया के गुन गा रहा था . क्या दोगला इंसान है और कोई कैसे इसे झेलता होगा. हर विवाद में अपनी नाक घुसेड़ने वाला ये आदमी ओछेपन की मिसाल है. केवल एक समुदाय के सहानभूति वोट पाने के लिए ये आदमी किस किस का अपमान करेगा. शहीद का, धमाकों में मारे गये मासूमो का, उनके परिजनों का और उन जवानो का जो देश से आतकवाद को हटाने के लिए जा जान से जुटे है.


पैसे के बल पर सांसदों कि खरीद फरोख्त हो या, रिश्वत काण्ड. कोई भी मसला हो ये सबके विपरीत केवल अपनी पार्टी के स्वार्थ के लिए कुछ भी उल जलूल बोलता दिख जायेगा. हीरोइनों से फ़ोन पर गन्दी बातें करने की इसके बात खुली तो इसे दाव खेला कि मेरे फ़ोन टेप किए जा रहे है. तब कांग्रेस इसको अपनी जान की सबसे बड़ी दुश्मन नजर आ रही थी. आज कांग्रेस को ये सबसे अच्छी पार्टी मान रहे है. कांग्रेस को बचाने के लिए इन्होने ही वामपन्थिओं को धोखा देकर संसद में कांग्रेस का हाथ पकड़ा. राजनीति में इनके घटियापन की मिसाल दी जाती हैं दुर्भाग्य है कि आज देश आतकवाद के साथ साथ अपनी ही राजनीति से लड़ रहा है. वो राज्नीतो जो अमर सिंह जैसे चिछोरो के चलते स्तरहीन हो गयी है.


क्या केवल वोट के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए ये आदमी शहीद का अपमान कर रहा है. घटिया बातें बोलकर कोई महान या लोकप्रिय नही बनता अमर सिंह जी. जनता के देश के हित में काम कीजिये. तो पूरा देश आपको सर आंखों पर बिठाएगा. अभी भी वक्त है कि सुधर जाओ वरना कोई देशभक्त किसी दिन आपको सही रास्ता जरूर दिखा देगा.

नोट - ऐसा लिखने के पीछे कोई ख़ास मंशा नही थी. बस आज अमर सिंह की टिपण्णी सुन कर बहुत गुस्सा आया. सम्भव हैं कि आपको भी आया होगा. मेरे लेखन से किसी की भावनाएं आहत हुई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ.

Saturday, September 27, 2008

चले खिलाडी हीरो बनने....

ओलंपिक में चांदी तांबा लेकर आने वाले अपने विजेंदर और सुशील के जलवे आजकल देखने लायक हैं. कभी ये दोनों फिल्मी कलाकारों से सम्मान लेते दिख रहे हैं तो कभी फैशन परेड में रोहित बल के परिधानों में चमक रहे हैं. विजेंदर तो विज्ञापनो में भी नजर आ रहा है. आख़िर देश का नाम रौशन किया है तो ये सब तो होना ही था. लेकिन इतनी जल्दी होगा, ये सोचा नही था. इन मुक्केबाजों और पहलवानों को जल्द ही किसी फ़िल्म का ऑफर मिल जाए तो ताज्जुब मत करियेगा. ये किसी अखाडे या किसी मुक्केबाजी ट्रेनिंग सेंटर में जाकर नए खिलाडिओं को गुर नही सिखा रहे, ख़ुद सीख रहे है, बोलीवुड के गुर. याद कीजिये हर मिस यूनीवर्स और मिस वर्ल्ड शुरुआत में कहती है कि जीतने के बाद समाज सेवा करूंगी, लेकिन खिताब जीतते ही वो बोलीवुड की तरफ़ भागती है. कुछ समय बाद वो समाज नही बल्कि बोलीवुड की सेवा करती नजर आती है, यही हाल खिलाडियो का हो रहा है. कोई फैशन परेड कर रहा है तो कोई फिल्मी कलाकारों के सात फोटो के लिए पोस दे रहा है. जरा इनसे पूछिए ओलंपिक से लौटने के बाद ये कितना खेले और किसके लिए.

उधर कुछ क्रिकेटर टीवी पर हसीनाओं के साथ ठुमके लगाते हुए नजर आ रहे हैं उस टीवी शो में जज बनी एक बड़ी अदाकारा एक क्रिकेटर के ठुमकों से बेहद प्रभावित हुई हैं और कह रही है कि तुम्हे फिल्मों में तरी करना चाहिए. यानि यही एक काम रह गया था. क्रिकेट छोड़कर बाकी सब कुछ करना और खासकर बोलीवुड कस्स एंट्री करना आजकल के खिलाडियो का शगल बन गया है. अचंभो होता है क्रिकेट में इतना पैसा होने के बावजूद ये ठुमके लगा रहे हैं. नेट पर प्रेक्टीस नही कर सकते. कोई विज्ञापनो में लगा है तो कोई नाच गाने में. अभ्यास मैचों में ये जख्मी हो जाते है, और असल मैचों में फिसड्डी की तरह खेल कर बाहर हो जाते है.


क्या हो गया है खेल जगत को. क्यों सब सिनेमा की तरफ़ भागते नजर आ रहे है. क्यों हर कोई स्टार बनने को उतावला है. क्यों सबको टीवी पर कवरेज चाहिए. क्या वास्तव में खेल इतना पैसा नही दे रहा या खेल बोरिंग हो रहा है. इन दोनों से से कोई बात सही नही. दरअसल ग्लेमर की ये दुनिया इतनी चमकीली है जो उनको आसानी से निशाना बनाती है, जिनकी उसे जरूरत है. ये नए हीरो ग्लेमर जगत की जरूरत है. इनके दम पर ही ही तो पैसा बरसता है. फ़िर चाहे कोई खिलाडी फ़िल्म स्टार बने या कोई विश्व सुन्दरी.

Wednesday, September 17, 2008

हाय हम आम क्यों हुए...

आजकल मेरे साथ बहुत कुछ हो रहा है. दिल लीक से हटकर कही ओर भाग रहा है..हो सकता है आप के साथ न हो रहा हो लेकिन ये सिर्फ़ मेरे साथ हो रहा है....आजकल मन बहुत छोटी छोटी बातों को लेकर दुखी हो रहा है. सरकारी ऑफिस में काम करने वाली महिलाओं को बच्चे पालने के लिए दो साल का सवेतनिक अवकाश और हमारे लिए (private) कुछ भी नही. जे जे केम्प में रहने वालो को काफ़ी कम कीमत पर मकान और हमें कुछ भी नही. केन्द्रीय कर्मियों को इतना भारी एरियर और हमें कुछ भी नही. जब अभिनव बिंद्रा को गोल्ड मिला तो खुशी तो हुई पर जब उसे करोडो का इनाम मिला तो दुःख भी हुआ.. उसके लिए नही अपने लिए...काश हम भी शूटर होते.... सुशील, वीरेंदर को जब करोडो मिले तो दिल रोया.. काश हम भी मुक्केबाज या पहलवान होते तो आज वारे न्यारे हो गये होते. अरे कुछ नही तो राष्ट्रीय स्तर पर कोई खिलाड़ी हो लिए होते कम से कम रेलवे में या कही सरकारी नौकरी तो मिल ही जाती. अरे कम से कम रेलवे में ही जवान बना देता ऊपर वाला. साल भर फ्री की रेल यात्रा ही कर लेते. कभी लगता है कि क्रिकेटर होते तो जम कर मौज और विज्ञापन कर रहे होते. अरे अगर कुछ भी न बचा होता तो हे ऊपर वाले कम से कम नेता ही बना देता. अपने देश में तो खूब पैदावार हो रही है.... एक हम भी सही...नेता होते तो कमाने खाने की चिंता नही होती, सरकारी बंगला, सरकारी गाड़ी ओर करने को कुछ नही. बस कुछ दिन संसद में जाकर जोर जोर से चिल्लाना या एक दो प्रेस कांफ्रेंस.किसी घायल को देखने अस्पताल जाना या फ़िर सड़क पर लेट कर नारेबाजी.
हमसे बढ़िया तो गरीबी रेखा से नीचे रहने वाला (बीपीएल) वो आदमी भी है जिसे चावल ५ रुपये किलो मिल जाता है और झौपडी के बदले एक फ्लैट... अब इस मुए दिल का क्या करे जो बीपीएल होने को उतावला हुआ जा रहा है...
मतलब ये कि कुछ तो होते जो मौज मिल रही होती. मगर उस ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था. उसने हमें बना दिया मिडिल क्लास यानि आम आदमी. जो मौज नही कर सकता. सरकारी ऐश नही कर सकता. करोडो में नही खेल सकता. अगर कुछ कर सकता है तो वो है दाल रोटी के जुगाड़ की चिंता. हां भाई घूस का ज़माना है...ऊपर वाले को नही खिलाई तो उसने बना दिया आम आदमी जो आम नही खा सकता, हां प्याज के दाम बढ़ने पर आंसू जरूर बहा सकता है. जिन्होंने घूस दी वो बन गये, ख़ास आदमी जो ख़ास सुविधाएं भोग रहे हैं.तो हे ऊपर वाले मेरे दिल की गुहार सुन ले..मुझे इस आम आदमी के सिवा कुछ भी बना दे. ये आम आदमी जो संख्या में सबसे ज्यादा है ओर उतना ही बेशरम... इतनी आफत में भी हंसकर जिए जा रहा है.....

Tuesday, September 9, 2008

समीर भाई को खुली चिठ्ठी ...

प्रिय समीर भाई

आप के जाने की ख़बर आग की तरह फ़ैल गयी है. और उस आग में हम भी जले जा रहे है. हाय समीर भाई हमें छोड़कर मत जाओ. हम निरीह ब्लोगरों को आप की ही टिप्पणियों का सहारा है. अब कौन हमें सराहेगा और दुलारेगा. कुछ ग़लत लिखने पर कौन हमें समझायेगा. यहाँ तो तो गलतियों पर समझाने की बजाये खुन्खारने वाले ज्यादा है. इस आभासी दुनिया को अभी आपकी जरूरत है. उनको भी जो आपको कोस कर अपनी दूकान चलाते है. आप किसी की चिंता मत करो. केवल लिखते रहो. यही बात तो आप सभी से कहते रहे और अब आप ही इस बात से घबरा कर मैदान छोड़ रहे है.

एक स्पेशल बात जो आप से कबसे कहना चाह रही थी पर संकोच और आप के बुरा मान जाने के डर से नही कह पाती थी. यही कि आप फ़िल्म सत्या के कल्लू मामा जैसे लगते हो (प्लीस बुरा मत मानना, मन में था सो कह दिया. छोटी बहन का इतना तो हक़ बनता है. ) लेकिन सच में बहुत अच्छे. बहुत प्यारे और बहतरीन लेखक ...

Saturday, September 6, 2008

आपकी राशिः और गणेश जी ....

अपनी राशि पर आई दुविधा को दूर करने के लिए ऐसे करे गणेश पूजा....
क्या आप जानते है की सभी ग्रह और नक्षत्रो और राशिओं के देव गणेश जी है. यानि सभी ग्रह और राशियाँ गणेश जी के ही अंश है. गणेश जी हर राशिः को अलग अलग तरह से प्रभावित करते है. आइये जानते है कि आपकी राशिः में क्या दुविधा है और गणेश जी उसे कैसे ठीक कर सकते है. इस्सके लिए गणेश जी कि कैसे पूजा अर्चना करनी होगी....

मेष:(चू, चे, चो, ला, ली, लू, ले, लो, अ)
इस राशि के गणेशस्वरूप को मेषेश्वर कहा जाता है। मेष राशि के लग्न और राशियों के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें प्रमुख है, लाभ की कमी, अपने से अधीनस्थों से पीड़ा ,अत्यधिक क्रोध और तनाव।

उपचार-
स्फटिक से बनी गणेश प्रतिमा का पूजन करें। पूजन करते समय जिस सामग्री का उपयोग करना है उसमें गंध, पुष्प, धूप, दीप ओर पंचोपचार प्रमुख है। इसी के साथ इष्ट मंत्र से काले तिल में शहद को मिलाकर नीम की लकड़ी की समिधा पर हवन का आयोजन करें। हवन संपूर्ण होने के वाद हवन सामग्री को किसी शूद्र को दान में दें, इसी के साथ उन्हें भोजन कराएं।
अगर आप गणेश जी का विशेष अनुष्ठान करना चाहते है तो फाल्गुन शुल्क चतुर्थी से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक व्रत रखें और इसी दौरान अनुष्ठान का आयोजन करें। व्रत के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराएं और दान दें। रोज गणेश प्रतिमा (स्फटिक के बनी) का पंचोपचार पूजन करें। इसी के साथ इष्ट मंत्र से कम से कम ३१ बार माला का जाप करें। पीले वस्त्रों का दान करें।

वृषभ:(इ, उ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे)
इस राशि के गणेशस्वरूप को वृषभेश्वर गणेश कहा जाता है। वृष राशि के लग्न और राशि के व्यक्ति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें भाग्य का साथ न देना, पिता एवं भाई बंधुओं से रिश्तों को लेकर तनाव, संतान के साथ तारतम्य न बैठ पाना प्रमुख है।

उपचार-
रुद्राक्ष के मनके पर भगवान गणेश के वासुदेव स्वरूप की प्रतिष्ठा करें और उनके पूजन करते समय गंध, पुष्प, धूप, दीप व पंचोपचार का प्रयोग करें। इसी के साथ अपने इष्ट का मंत्र जाप कर घी में काले तिल मिलाकर नीम की समिधा पर हवन करने से काफी फायदा होगा।
गणेश चतुर्थी को इष्ट मंत्र का जाप करते हुए ३१ बार माला का जाप करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं। शूद्रों को भोजन का दान करें। इसी के साथ नीले वस्त्रों का दान करना भी लाभकारी होता है।


मिथुन:(क, की, कु, घ, ड, छ, के, को, ह) इस राशि के गणेशस्वरूप को मिथुनेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्ति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें वैवाहिक जीवन में तनाव, सार्वजनिक जीवन में कष्ट , विवादों में संलिप्तता, धन का नाश प्रमुख है।

उपचार-
स्वर्ण से बनी गणेश प्रतिमा का पूजन करें। पूजन करते वक्त गंध, पुष्प, धूप, दीप और पंचोपचार का होना जरूरी है। इसी के साथ गणेश चतुर्थी को इष्ट मंत्र का जाप करते हुए ३१ बार माला का जाप करना शुभकारी है।
वैशाख माह में पडऩे वाली चतुर्थी को भगवान गणेश संकर्षण स्वरूप का पूजन विधिवत किया जाए तो समस्याओं से काफी हद तक निदान हो सकता है। ब्राह्मणों को भोजन कराना और शंख का दान करना भी काफी लाभकारी होगा।


कर्क:(ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे, डो)
इस राशि के गणेशस्वरूप को कर्केश्वर कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें, आर्थिक क्षेत्र में कठनाई, दाम्पत्य जीवन में दु:ख, भाइयों से अनबन होना प्रमुख है।

उपचार-
सफेद आंकड़ों से बने गणेश की पूजा करें। पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप ओर पंचोपचार का होना लाभकारी होगा। प्रत्येक माह की संकष्टी चतुर्थी को व्रत रखकर भी भगवान गणेश को प्रसन्न किया जा सकता है ।
इसी के साथ ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी को षोडशापचार पूजन कर गणेश की आरती करें तो काफी लाभकारी होता है। ब्राह्मणों को भोजन कराना, श्वेत वस्त्र का दान करना, फल और कन्द का दान करना भी लाभकारी होता है।


सिंह:(मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टे)
इस राशि के गणेशस्वरूप को सिंहेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें जीवन में तनाव का होना, कुटुम्बियों से झगड़ा, दाम्पत्य जीवन में दु:ख होना प्रमुख है।

उपचार-
प्रवाल से बने गणपति का पूजन करें। पूजन सामग्री में गंध, धूप, पुष्प, दीप और पंचोपचार का होना शुभ माना जाता है। इसी के साथ माघ शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी को उपवास रख गणेश के अनिरूद्ध स्वरूप षोडशोपचार की पूजा करनी चाहिए।
सन्यासियों को तंूबी पात्र का दान करना लाभकारी होता है। गुड़ मिले हुए काले तिलों से कनेर एवं देवदारू की समिधा पर हवन करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना भी शुभ होता है।


कन्या:(टो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो)
इस राशि के गणेशस्वरूप को कन्येश्वर कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन मूल समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें धन की उत्पत्ति से संबंधित समस्याएं, निर्णय क्षमता की कमी का होना, दाम्पत्य जीवन में सामन्जस्य की कमी प्रमुख है।

उपचार-
हल्दी व स्वर्ण से गणेश प्रतिमा का निर्माण कर पूजन करना चाहिए। पूजन सामग्री में गंध, पुष्प, धूप , दीप व पंचोपचार का होना अच्छा माना जाता है।
चतुर्थी को बाटी के लड्डु गुड़ में तैयार कर केल की समिधा पर हवन करना अति लाभकारी है। कृष्णपक्षीय व्रत रखना भी शुभकारी है। ब्राह्मणों को भोजन कराए भोजन में लड्डू होना चाहिए, जो लड्डू भोजन में दिया हो उसका स्वंय भी भोग करें। दूध देने वाली गाय का दान लाभकारी है।


तुला:(र, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते)
इस राशि के गणेश को तुलेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें अजीविका के साधनों में कमी, आर्थिक लाभ में कमी, सरकारी मशीनरी से कष्ट प्रमुख है।

उपचार-
रक्त चंदन से बने गणेश का पूजन करना चाहिए। पूजन में गंध, पुष्प, धूप, दीप व पंचोपचार का उपयोग हो। माह की चतुर्थी को उपवास रख गणेश जी कि आराधना करें। इसी के साथ अष्विन शुक्ल चतुर्थी को भगवान कपर्दिश गणेश का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। दान में लाल कम्बल और औषधि दें। अश्विन शुक्ल चतुर्थी को भगवान कपर्दिश गणेश का षोडशोपचर पूजन करें। पुरूषों को अर्जुन की समिधा पर हवन करना चाहिए।


वृश्चिक:(तो, ता, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू)
इस राशि के गणेशस्वरूप को वृश्चिकेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें परिवार में आर्थिक संकटों का होना, बचपन में असुविधा, भाग्यमंदता और सांसारिक कष्ट प्रमुख है।

उपचार-
गजदंत से बनी गणेश प्रतिमा का पूजन करें। पूजन में गंध, पुष्प, धूप, दीप और पंचोपचार का होना शुभकारी है। इसी के साथ कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी को भगवान भालचन्द्र गणेश का षोडशोपचार पूजन बहुत ही लाभकारी है। गणेश चतुर्थी का व्रत करें, व्रत के दौरान एक समय बाटी और एक समय लड्डू का प्रसाद लगा कर उसे ग्रहण करें।

स्त्रियों को सुहाग की वस्तुएं दान देना इस राशि के जातकों के लिए शुभ माना गया है। मरूआ अथवा आम की समिधा पर चावल व घी से हवन करें। ब्राह्मणों को भोजन कराए।


धनु:(ये, यो, भा, भी, का, फा, ढा, भे)
इस राशि के गणेशस्वरूप को धनेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन कष्टों का सामना करना पड़ता है उनमें सार्वजनिक जीवन में बाधा, वैवाहिक जीवन में तनाव, गुप्त शत्रुओं से पीड़ा और माता के जीवन से कष्ट प्रमुख है।

उपचार-
मूंगे से निर्मित गणपति का पूजन करें। पूजन में गंध, पुष्प, धूप, दीप और पंचोपचार का होना शुभकारी है। इसके अलावा भगवान गणेश के सुरागृज स्वरूप का पूजन करना चाहिए। चतुर्थी का उपवास विशेष लाभकारी है।
प्रात:काल उठकर इष्ट मंत्र से आक की समिधा पर हवन करें। गंधारी अथवा केतकी की समिधा पर मूंग के बने मोदक का हवन करना चाहिए। मूंग के पदार्थों का निर्माण कर ब्राह्मण को दान में दें। इसी के साथ अंग-वस्त्र का दान करना लाभकरी होता है।


मकर:(भो, जा, जी, जू, खू, खे, खो, ग, गी)
इस राशि के गणेश को मकरेश्वर कहा जाता है । इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें आर्थिक कष्ट, लाभ की प्राप्ति में रुकावट, भाइयों से पीड़ा प्रमुख है।

उपचार-
चंदन से निर्मित गणेश की पूजा करें। पूजन में गंध, पुष्प, धूप, दीप, व पंचोपचार का होना शुभकारी है। भगवान गणेश के लम्बोदर स्वरूप की पूजा करना भी इस राशि के जातकों के लिए शुभ माना गया है। विशिष्ट अनुष्ठान के दौरान बरे की समिधा पर तिल्ली एवं मोदक से हवन करना चाहिए। महीने की संकष्टी चतुर्थी को उपवास करें और उपवास के दिन रात्रि में चंद्रमा के उदय हो जाने के बाद भोजन को ग्रहण करना चाहिए।
चतुर्थी को अनुष्ठानपूर्वक लम्बोदर गणेश का षोडशोपचार पूजन करें इसी के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराकर कांस्य पात्र का दान करना चाहिए।


कुंभ:(गू, गे, गो, सा, सी, सू, से, सो, द)
इस राशि के गणेशस्वरूप को कुंभेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें जीवन में बार-बार संत्रास, परिवार में असंतोष, वैवाहिक जीवन कष्टकारी और भाग्यमंदता प्रमुख है।

उपचार-
श्वेतार्क गणपति का पूजन करें। पूजन के समय गंध, पुष्प,धूप, दीप और पंचोपचार का प्रयोग शुभकारी माना जाता है। इस राशि के व्यक्तियों के लिए चतुर्थी का उपवास करना अच्छा माना जाता है। पौष शुक्ल चतुर्थी को भगवान गणेश के विघ्रेश्वर स्वरूप का पूजन करना चाहिए। विशेष अनुष्ठान के लिए अगस्त की समिधा पर चावल, शकर एवं घृत से हवन करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराकर चांदी के पात्र दान करना चाहिए।


मीन:(दी, दू, थ, झ, त्र, द, दो, चा, ची)
इस राशि के गणेशस्वरूप को मीनेश्वर गणेश कहा जाता है। इस राशि और लग्न के व्यक्तियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उनमें मनपसंद जीवनसाथी का न मिलना, पत्नी से अनबन, आर्थिक मार, परिवार के किसी व्यक्ति को असाध्य रोगों की पीड़ा प्रमुख है।

उपचार-
प्रवाल के गणपति का पूजन करें। पूजन में गंध ,पुष्प, धूप, दीप और पंचोपचार का उपयोग करना चाहिए। चतुर्थी का व्रत रखना लाभकारी होता है। भगवान गणेश के ढुण्ढीराज स्वरूप का पूजन करना अति लाभकारी होता है। इसके अलावा माघ माह की चतुर्थी को मृत्तिका की मूर्ति पर षोडशोपचार पूजन करें।
विशिष्ट अनुष्ठान में आक की समिधा बनाकर शमी-पत्र से हवन करें साथ ही गुड़ के मोदक का भी प्रयोग किया जा सकता है। ब्राह्मणों को भोजन कराकर तांबे के पात्र और और छाते का दान करना शुभ है।

Friday, September 5, 2008

गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन निषेध क्यों...

गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन निषेध माना जाता है. कहते है की जो कोई भी इस दिन चंद्रमा को देख लेता है उसे मिथ्या कलंक लगता है. उस पर झूठा आरोप लगता है. आख़िर इसका क्या कारण है और क्यों. आइये आपको सुनाती हु इससे जुड़ी स्यमन्तक मणि कथा ....
एक बार जरासंध के भय से भगवान कृष्ण समुद्र के बीच नगरी बनाकर वहां रहने लगे। यही नगरी आज द्वारिका नगरी के नाम से जानी जाती है। उस समय द्वारिका पुरी में रहने वाले सत्रजीत यादव नामक व्यक्ति ने सूर्यनारायण भगवान की आराधना की और आराधना से प्रसन्न होकर सूर्य भगवान ने उसे स्यमन्तक नामक मणि वाली माला अपने गले से उतारकर दे दी। यह मणि नित्य आठ सेर सोना प्रदान किया करती थी। मणि पाकर सत्रजीत यादव समृद्ध हो गया। श्री कृष्ण को यह बात पता चली तो उन्होंने सत्रजीत से वह मणि पाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन सत्रजीत ने मणि श्री कृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजीत को दे दी। एक दिन प्रसेनजीत शिकार पर गया जहां एक शेर ने प्रसेनजीत को मारकर मणि ले ली। यही रीछों के राजा और रामायण काल के जामवंत ने शेर को मारकर मणि पर कब्जा कर लिया।

कई दिनों तक प्रसेनजीत शिकार से घर न लौटा तो सत्रजीत को चिंता हुई और उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि पाने के लिए प्रसेनजीत की हत्या कर दी। इस प्रकार सत्रजीत ने पुख्ता सबूत जुटाए बिना ही मिथ्या प्रचार कर दिया कि श्री कृष्ण ने प्रसेनजीत की हत्या कर दी है। इस लोकनिन्दा से आहत होकर और इसके निवारण के लिए श्रीकृष्ण कई दिनों तक वन वन भटक कर प्रसेनजीत को खोजते रहे और वहां उन्हें शेर द्वारा प्रसेनजीत को मार डालने और रीछ द्वारा मणि ले जाने के चिह्न मिल गए। इन्हीं चिह्नों के आधार पर श्री कृष्ण जामवंत की गुफा में जा पहुंचे जहां जामवंत की पुत्री मणि से खेल रही थी। उधर जामवंत श्री कृष्ण से युद्ध के लिए तैयार हो गया। सात दिन तक जब श्री कृष्ण गुफा से बाहर नहीं आए तो उनके संगी साथी उन्हें मरा हुआ जानकार विलाप करते हुए द्वारिका लौट गए। २१ दिनों तक गुफा में युद्ध चलता रहा और कोई भी झुकने को तैयार न था। तब जामवंत को भान हुआ कि कहीं ये वह अवतार तो नहीं जिनके दर्शन के लिए मुझे श्री रामचंद्र जी से वरदाम मिला था। तब जामवंत ने अपनी पुत्री का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में श्री कृष्ण को दे दी। उधर कृष्ण जब मणि लेकर लौटे तो उन्होंने सत्रजीत को मणि वापस कर दी। सत्रजीत अपने किए पर लज्जित हुआ और अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्री कृ ष्ण के साथ कर दिया।
लेकिन इसके कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्रजीत को मारकर मणि छीन ली। श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्री कृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए। उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्री कृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्री कृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है। तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे कृष्ण तुमने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किए और इसी कारण तुम्हें मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा है।
तब पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी। कहते हैं कि एक बार जगतपूज्य भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का तुंदिल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को यह अपमान सहन नहीं हुआ। उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, 'पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया है। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित होगा।
यह शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए। सभी देवताओं को चिंता हुई क्योंकि चंद्रमा ही पृथ्वी का आभूषण है और इसे देखे बिना पृथ्वी पर कोई काम पूरा नहीं हो सकता। चंद्रमा के साथ सभी देवता ब्रह्मा के पास गए। उनकी बातें सुनकर ब्रह्मा बोले, 'चंद्रमा, तुमने जन-जन के अराध्य देव शिवपुत्र गणेश का अपमान किया है। यदि तुम अपने शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे। ’ चंद्रमा ने ऐसा ही किया। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा, 'वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। ’ केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली। तब से भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन का निषेध है।

Thursday, September 4, 2008







यहाँ हम आपको दिखा रहे है कुछ फॅमिली फोटोग्राफ...

और भी मुद्दे है इस मुद्दे के सिवा...

पिछले काफ़ी दिनों से ब्लॉग पर नारीवादियों और पुरूषवादियो के बीच एक अघोषित जंग देख रही हूँ । स्त्री देह विमर्श हो या महिलाओं द्बारा पुरुषों के सामूहिक मानसिक बलात्कार का बयान ब्लॉग को छिछला और स्तरहीन ( यह मेरी निजी राय है ) बना रहे है। कहीं नारियां मर्दों के ख़िलाफ़ लामबंद हो रही हैं तो कहीं पुरूष नारियों को ईश्वर की भूल करार देने पर तुले है। दोनों ओर से मानसिकताओं को छोटा बताने और बनाने का मिशन चल रहा है। पूरा ब्लॉग जगत वर्गों में बंट गया लगता है। ब्लॉग मर्द और औरत की जंग के लिए रणभूमि में तब्दील हो गया है। महिला का ब्लॉग होगा तो वहां पुरुषों के लिए जहर उगला होगा और पुरूष का ब्लॉग हुआ तो चोखेरबालियों पर तंज किया होगा। लांछनों और प्रति-लांछनों का दौर ख़तम होने का नाम ही नही ले रहा। इससे भला तो अंग्रेजी का ब्लॉग है जहाँ इस तरह की लड़ाई नही मिलती।
मन ये देख कर व्याकुल है। हम और अन्य ब्लॉगर जो इस जंग को गेर जरूरी समझते है, वो बेचारे इस जंग में बेवजह ही पिसे जाते है। माना कि आपमें लिखने का हुनर है और लेखन का शौक भी, तो इस कला तो केवल वर्ग विवाद में जाया मत कीजिये। यकीन नही होता कि इतने प्रतिभावान और समझदार ब्लॉगर किस चक्कर में पड़ गये है। क्या हम ब्लॉग को केवल ब्लॉगर के रूप में नही चला सकते। क्यों ब्लॉग जगत को महिला और पुरुषों मैं बाँट रहे हैं।
मैं ख़ुद एक महिला हूँ और मुझे पसंद नही कि यहाँ किसी भी वर्ग और उनकी शारीरिक असमानताओं या चरित्र विशेषताओं पर चर्चा की जाए। ब्लॉग जगत अपने विचारों को कहने सुनने का एक बहुत ही अच्छा जरिया है। यहाँ आप बिना ये सोचे कि महिला हैं या पुरूष अपने विचारों, अपनी कला और संवेदना को दूसरों के सामने रख सकते है। ब्लॉग मंच है अभिव्यक्ति का, वर्ग विशेष की त्रुटियां बताने का अड्डा नही है ये। इस राजनीति से इसे दूर ही रखा जाए अच्छा होगा। वैसे भी इस विवाद ( श्रेष्ठ कौन ) का हल तो स्वयं भगवान् भी नही बता पाए तो हम किस खेल की मूली हैं। दोनों वर्ग एक दूसरे की खामियां बताते रहेंगे और सच मानिए एक दूसरे के बिना इनका गुजारा भी नही। क्या चोखेरबलिया अपने घर के पुरुषों (पति, भाई, पिता ) को भी इसी तराजू में तोलती हैं और क्या कथित पुरुषवादी अपने घर की महिलाओं (माँ पत्नी, बहन ) को भी ईश्वर की भूल मानते हैं. सच तो ये है कि दोनों एक दूसरे के पूरक है और तभी दुनिया भी चलती है।
मेरी सलाह मानिए और इस वर्गीय और सनातन दुश्मनी को त्याग दीजिये। (मुझे यकीन है कि हर ब्लॉगर (जो इस लड़ाई में तन और मन से जुटा हुआ है।) यही कहेगा कि यहाँ कोई दुश्मनी नही, ये तो मुद्दों और विचारों की लड़ाई है। हम भी तो यही कह रहे है कि मुद्दे और भी हैं ज़माने में इस मुद्दे के सिवा... कुछ उन पर भी नज़र डालिए।

Tuesday, September 2, 2008

कोई पूछता नही....

हमसे हमारी बात कोई पूछता नही

कुछ और सवालात कोई पूछता नही.

जिसकी दर ओ दीवार और छत्त ही नही

कैसी ये हवालात कोई पूछता नही.

जिसमे हिलें न होंठ हों आंखों पे पट्टियाँ

कैसी वो मुलाक़ात कोई पूछता नही

पहले उजाड़ घर को घरोंदों की पेशकश

किनकी है करामात कोई पूछता नही।

कुछ लोग लाल ताल हैं बांधे हैं मुट्ठियाँ

होगी क्या वारदात कोई पूछता नही

है आसमान सख्त जमी के शिरे तने

कब टूटे कायनात कोई पूछता नही

यहाँ सब्र किसे दूसरों का हाल जो पूछे

अपने दिले जज्बात कोई पूछता नही।

विनीता वशिष्ठ

वनिशा, ईशा और पिया...

अभी हाल ही में फोर्ब्स पत्रिका ने टॉप 150 कुबेरपतिओं की बेटियो के बारे सर्वेक्षण किया जिसमे लक्ष्मी मित्तल और रिलाएंस के मुकेश अंबानी की बेटियों ने बाजी मारी. लक्ष्मी मित्तल की बेटी वनिशा (इसकी शादी में मित्तल ने छह करोड़ डॉलर खर्च किए थे.एक भाई है और दोनों के नाम पर ही मित्तल की अकूत सम्पति है.) का नाम सबसे ऊपर रहा. दूसरे नंबर पर रही मुकेश की १६ साल की बेटी ईशा (एकमात्र संतान, रिलाएंस में फिलहाल आठ करोड़ की हिस्सेदारी, मुकेश की एकमात्र वारिस) और तीसरे नंबर पर रही भारतीय कुबेरपति कुशलपाल सिंह की बेटी पिया सिंह. यानि पहले तीनो स्थान भारतीय बेटियों के नाम रहे. दुनिया भर के अरबपतियों में सबसे ऊपर भारतीय और उनकी बेटियाँ. मन में एक गर्व सा आ गया. भारत तरक्की कर रहा है. इन बेटियों पर हमें गर्व है और उम्मीद भी की अपने पिताओं की तरह ये भी दिन दूनी और रात चौगनी तरक्की करेंगी.
तस्वीर का एक पहलू ये है जहा भारतीय पिताओं के साथ साथ उनकी बेटियों की भी दुनिया भर में धूम मची है और तस्वीर के दूसरा पहलू वो है जहाँ मजबूर और गरीब भारतीय बाप धन के अभाव में बेटी की शादी उससे दुगनी उम्र के आदमी के साथ कर रहा है. कहीं पेट भरने के लिए बेटियाँ दूसरे घरो में कामकर रही हैं और कुछ शरीर बेच रही है. कुछ दहेज़ के लिए जलाई जा रही है और कुछ खुद ही दहेज़ एकत्र करने के मिशन में मशीन बन कर काम किए जा रही है. एक ही वर्ग में इतनी असमानता भारत में ही देखने को मिल सकती है. कुछ बेटियों का भविष्य सूरज की तरह उजला है और कुछ का रात की तरह काला जहाँ सवेरा कब होगा पता नही.
एक तरफ़ वनिशा, ईशा और पिया और दूसरी तरफ़ ये बेटियाँ, समझ नही आता भारत की असली तस्वीर कहाँ है. ....

Monday, September 1, 2008

अपनी भूल सुधारे कौन....

लाखों तारे आसमान में नीचे इन्हे उतारे कौन,
काँटों के सौदागर सारे घर और द्वार बुहारे कौन.
नसीहतों से भरे टोकरे लिए खड़े हैं लोग तमाम,
मुल्लाओं की महफ़िल में अपनी भूल सुधारे कौन.
तालीमों की किसे जरूरत किसको इंसानों से काम,
दरवाजे पर दस्तक देकर मेरा नाम पुकारे कौन.
खुशहाली में सभी पूछने आते थे मेरे हालात,
लेकिन तन्हाई के लम्हे मेरे साथ गुजारे कौन.
हालात से समझौतों में खामोशी बन गया जमीर,
सन्नाटे में चौराहे पर दिल की बात गुहारे कौन..

Wednesday, August 13, 2008

याहू ...........तीन दिन की मौजा ही मौजा


पन्द्रह अगस्त, रक्षा बंधन और फ़िर रविवार की छुट्टी ने जनता को तीन दिन की मौज उपहार में दी हैं. हम तो बड़े ही खुश है. महीना शुरू होने से पहले ही लोग इन तीन दिनों की मौज को केश कराने का प्लान बना रहे हैं.. हमारे कई साथी (जो बाहर प्रदेशों से आकर यह काम करते है.) इन तीन दिनों का पूरा लुत्फ़ अपने परिवार के साथ बिताने के लिए आज ही गावँ कूच कर गये हैं. साथ वाले मिश्रा जी तो बुधवार की शाम को ऑफिस से ही रेलवे स्टेशन पहुँच गये. बैग्स सुबह अपने साथ ऑफिस ले गये थे, वही से निकल लिए. ... कहने लगे. कौन समय ख़राब करे गुरूवार की छुट्टी ले ली है और अब रविवार की रात को ही लौटेंगे. यानि एक दिन की छुट्टी पर चार छुट्टी का बोनस. बाय वन गेट फोर.....
ये रिवाज़ एनसीआर की छोटी बड़ी सभी कंपनिओं में हो गया हैं. ज्यादातर कर्मचारी बाहर से आए होते है जो त्योहारों पर खूंटे से छूटे बैल की तरह अपने गावं की ओर भागते हैं. ओर काम करने के लिए बेचारे दिल्ली वाले यानि लोकल रह जाते है. हालाँकि बाहर प्रदेशों से आए लोग रिटेल में छुट्टी नही करते...वो एक या डेढ़ हफ्ते की थोक भावः की छुट्टी करते है. और लोकल लोग रिटेल में छुट्टी करते है. आज मामा के यहाँ जाना है. आज बिजली का बिल जमा करना था. कोई सगा बीमार था, उसे देखने अस्पताल चला गया...घर की मरम्मत करानी है....आउट साइडर अपनी या बहन की शादी, होली दीवाली या छठ पर ही घर जाते है और बाकी दिनों वो कंपनी के प्रति पूरी वफादारी दिखाते है. ...
ये तो हुई छुट्टी की बात... अब बात करते हैं माहौल की....छुट्टी की रोमानियत मन में ऐसी हैं कि माहौल भी रंगा हुआ नज़र आ रहा है. बाज़ार राखिओं और पतंगों से पटे पड़े है. औरतें राखियों और मर्द-बच्चे पतंगों पर टूटे पड़े हैं. जहा देखो आज़ादी के गीत और रक्षा बंधन के गाने लाउड स्पीकरों पर जोर जोर से बजाये जा रहे है. कमाल की बात है एक दिन आज़ादी का और दूसरा दिन बंधन का. सावन की खुमारी भी सिर चढ़कर बोल रही है. क्या करें मौसम भी तो मजेदार हो गया है.
सड़कों पर बिकती राखियाँ और आसमान में उडती पतंगे एक अजीब सा रोमांच पैदा कर रही है. चाहे पतंग उडानी ना आती हो लेकिन कभी भी जब सामने कोई कटी पतंग उडती हुई नज़र आती है तो हाथ अपने आप ही एकबारगी उसे लपकने के लिए उठ जाते है. बच्चे लम्बी लम्बी झाडियाँ लिए पतंग लूटने को भागे फ़िर रहे है. हाथ में झाडी और पीठ पर लूटी हुई पतंगों का ढेर ....सच किसी जंग में जा रहे योद्धा की तरह महसूस करते होंगे. पिंकू, सोनू मोनू, बबलू को कल के लिए तैयारी भी तो करनी है...पतंगों के पेंच बांधे जा रहे होंगे. चर्खिया तैयार है और चर्खिया लेकर खड़ी होने के लिए छोटी बहन को भी राज़ी कर लिया है. कल छत पर ही खाना पीना होगा जोरदार हंगामा होगा. खूब गाने बजेंगे और सारे दिन पतंग उडाएंगे.. किसी की पतंग काटी तो आवाज़ आएगी .. आई बोट्टे- वो काटा- फ़िर पतंग पर आधारित कोई फिल्मी गाना बजेगा और सीटी का शोर..... उधर पापा सोच रहे है, सारा दिन आराम करेंगे. खाने पीने में भी कुछ स्पेशल बनवा लेंगे. एक आध पतंग भी उडा लेंगे. बच्चे भी खुश हो जायेंगे और बीवी भी. उधर बीवी जी तो अगले दिन की तैयारी में जुटी है. कौन सी राखी लूँ भाई के लिए. ये सुनहरी, ये मेटल की या ये चंदन की...भइया ठीक रेट लगाओ...पाँच लेनी है..... मिठाई क्या लूँ... साड़ी तो आ गयी ब्लाउस कब आएगा. ओह मेंहदी भी लगवानी है.
ये क्या...सबके प्लान बन रहे हैं और हम हैं कि अभी तक सोचा ही नही क्या करना है. चलिए अब हम भी कुछ पालन बनते है....आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना और हेप्पी राखी....

रूपा नाम है उसका...

रंग साफ़, आँखे बड़ी बड़ी, नाक ठीक ठाक और बाल भी करीने से बंधे हुए. काम करने में तेज़, झाडू, कटका, बर्तन, कपड़े और दूसरे घर के काम. सभी कुछ मिनटों में और मुस्कुराते हुए निपटा डालती है. हाँ, करते हुए उसका ध्यान टीवी की तरफ़ जरूर रहता है. सीरियल नही देखती, बल्कि फिल्मी गाने ( नई फ़िल्मों के) पसंद हैं उसको. अब उसकी उम्र पर नजर डालिए- महज़ ग्यारह साल, दूसरी क्लास तक पड़ी थी फ़िर माँ ने अपने साथ घरो में काम करने के लिए लगा दिया. पड़ोसी के घर आती है रोज. फ़िर सन्डे को मेरे घर भी आ जाती है. हम ऑफिस जाने वाले सन्डे को ही ठीक तरह सफाई कर पाते है. सो मैं उसे बुला लेती हू मदद के लिए. दरअसल मेरा आठ महीने का बेटा उसे बहुत पसंद करता है. वो भी बड़े ही मन के साथ उसे खिलाती है उसे. कभी कभी तो उसके खिलौनों के साथ वो भी खेलती है. धीरे धीरे वो मुझसे खुल गयी तो मैंने उससे बहुत कुछ पूछा.... उसके पाच भाई बहन हैं, पापा दिहाडी मजदूर हैं और मम्मी घरो में काम करती है. अब वो भी करने लगी है, पड़ना चाहती थी पर पैसे नही है पड़ने के लिए. कपड़े भी कई घरो से मिल जाते है. सबसे छोटी बहन ८ महीने की है. जब दो महीने की थी तभी से माँ उसे घर पर रूपा के हवाले करके काम पर चली जती थी. बहन अब उसे ही माँ समझती है. दो भाई सड़क किनारे भुट्टे बेचते है और शाम को वो भी हाथ बंटाने चली जाती है. एक कमरे के मकान में रहते है. पापा बाहर सोते हैं. उसे अपनी दिनचर्या बताई. सुबह चार बजे उठना...सबके लिए खाना बनाना, छोटी बहन को नहलाना फ़िर भाइयों को स्कूल भेजना. (भाई स्कूल से आने के बाद भुट्टे बेचते हैं.) फ़िर खाना खा कर माँ के साथ काम पर निकलना. तीन बजे तक पाँच घरो का काम निपटाती है. फ़िर घर जाकर माँ के साथ खाना खाती है (वैसे कई घरों में कुछ ना कुछ खाने को मिल जाता है. ) चार बजे छोटी बहन (आजकल इसे सात साल की दूसरी बहन संभालती है.) को साथ लेकर भाइयों के साथ भुट्टे बेचना. रात नौ बजे तक ये काम चलता है. फ़िर घर आकर माँ के साथ खाना बनवाने में मदद करती है फ़िर बिस्तर पर जाती है. मुझे अचम्भा होता है इस जरा से लड़की की हिम्मत देखकर ......इतनी कम उम्र और इतना काम ....इस उम्र में तो बच्चे पढ़ते हैं, खेलते हैं और रंग बिरंगे सपने देखते हैं.

उसे सजने और टीवी देखने का शौक है....में अपने पुराने सूट उसे दे देती हूँ और अपनी कभी कभी उसे साप्ताहिक बाजार से टोप्स कड़े, और क्लिप भी खरीद देती हूँ.उसे बड़ा अच्छा लगता है. जब भी वो मेरे घर में काम करती है तो असल में काम तो मैं करती हूँ और मेरी मदद वो करती है. जैसे रूपा कपडे सुखा दे, डस्टिंग कर दे, दूध उबाल दे या मन्नू के साथ खेल ले.. उस दौरान टीवी चलता रहता है. पता नही क्यों उससे काम कराने को दिल नही मानता. उस दिन वो बड़ी खुश रहती है और सन्डे मनाती है. घर जाते समय में उसके हाथ में बीस का नोट रखती हूँ जो उसकी माँ भी उससे नही मागती (एक दिन तो बिटिया मौज कर ले)
जब मैंने पूछा की पढ़ाई के लिए पैसे क्यों नही हैं... उसने बताया कि पापा उसकी शादी के लिए पैसे जमा कर रहे है न तो पैसे नही बचते... पर मैं हिन्दी पढ़ लेती हू...

उसका सपना है कि किसी दिन सिनेमा हाल मैं जाकर फ़िल्म देखे, जींस और टॉप पहने और किसी बड़े से होटल में खाना खाए. वो चाउमीन और बर्गर खाना चाहती है, नए तरीके से बाल कटवाना चाहती है. वो नए कपड़े पहन कर हमउम्र लड़किओं के साथ खेलना चाहती है. उनकी तरह स्कूल ड्रेस में पढने जाना चाहती है. वो चाहती है कि उसके जन्मदिन पर भी केक काटा जाए...लेकिन वो जानती है कि इन सपनो को पूरा करने के लिए जो समय और पैसा चाहिए वो उसके घरवालों के पास नही है. कल जब उसकी शादी हो जायेगी तब भी वो कही और घरों में काम करेगी और आज कि छोटी रूपा तब कामवाली बाई बन जायेगी.
क्या ऐसी बच्चियां जन्म के साथ ही बड़ी हो जाती हैं. क्या इनका जन्म ही काम और शादी के लिए हुआ है. क्या इनके सपने कभी पूरे नही हो सकते. क्या उसका भविष्य भी दूसरी कामवालियों की तरह हो जायेगा. गुलाब की तरह खिलती एक लड़की कैसे एक कामवाली में तब्दील हो सकती है.

क्या आपके पास कोई जवाब है. इन सवालों का..... हो तो जरा मुझे भी बता दीजिये. मैं बहुत परेशान हू......

Monday, August 11, 2008

ट्रेफिक पुलिस के ये सिपाही

जिस रास्ते से हम ऑफिस जाते है, वहा पांडव नगर पुलिस चौकी से कुछ ही मीटर की दूरी पर एक ट्रक (बहुत बड़ा ) बीच रास्ते में खराब खड़ा हैं, ये बात करीब तीन दिन पहले की है. इस ट्रक के कारण पूरा ट्रेफिक अस्त व्यस्त है लेकिन किसी को इसकी परवाह नही. रेड लाइट से जरा सा आगे खिसकने पर सौ रुपये का चालान काटने वाले ट्रेफिक पुलिस के सिपाही इस ट्रक को हटाने में जल्दीबाजी नही दिखा रहे. क्युकि यहाँ पैसा नही मिलने वाला. वाह रे सरकारी विभाग. ऐसा ही कुछ गोलमाल मयूर विहार और नॉएडा की क्रॉसिंग पर दीखता है. यहाँ ट्रेफिक पुलिस के सिपाही छिप कर खड़े होते है और रेड लाइट पार करने वालो को पकड़ते है. लेकिन जब रेड लाइट ख़राब होती है तो कोई सिपाही नजर नही आता अस्त व्यस्त ट्रेफिक को दुरुस्त करने के लिए. कारण यहाँ काम है लेकिन माल खाने की जुगत नही है. समझ नही आता कि हर कोई माल खाने पर उतारू क्यों है. क्या माल खाए बिना अपने रुटीन वर्क भी पूरे नही किए जा सकते. क्यों ये लोग इतने बेशरम हो गये है कि बिना माल खाए इनका दिन ठीक नही गुजरता. आख़िर क्यों जनता ट्रफिक नियम तोड़ने से डरती नही है. रेड लाइट पार करने पर सौ रुपये का जुरमाना है, लेकिन जब पचास रुपये इनकी जेब में जायेंगे तो ये चालान क्यों बनायेंगे. वाहन वाले को भी पचास का फायदा और इन्नी भी जेब गरम . दोनों एक दूसरे की सुविधा का ख्याल रखते हुए देश सेवा कर रहे है. यहाँ सेटिंग चलती है, जैसे हफ्ता वसूली करने वाले गुंडे इलाका बांटे है, वैसे ही ये सिपाही भी इलाका बाँट लेते है.

चलिए सुनते है उनके बीच की कुछ बातचीत.....
एक - आज क्या हुआ, तेरा मुंह क्यों उतरा हुआ है...
दो - कुछ नही यार.. लगता है आज साले किसी को जल्दी नही है. कोई लाइट पार नही कर रहा, बोहनी तक नही हुई.
एक - तो मेरे इलाके में आ जा, यहाँ तो बड़ी भीड़ होती है, कोई न कोई तो फंस ही जायेगा.
दो - नही यार ये रोज रोज कि उधारी ठीक नही...सोच रहा हूँ, रेड लाइट का टाइम बढ़ा दूँ.
एक - हां मेरे यहाँ भी ग्रीन तो दस सेकेंड की है और रेड दो मिनट की कर दी है. अब रोज कमाई होती है.
दो - हां यार में भी सोच रहा हूँ कि पीली लाइट में भी एक दो को फांस लिया करूँ.
एक - वैसे आजकल साले सब होशयार हो गये है, हेलमेट पहन के चलते है, फैशन की किसी को परवाह नही. और तो और कागज़ भी पूरे मिल जाते है और पोलुशन भी करा लेते है.
दो - अब ऐसे में तू ही बता, हम गरीबो का घर कहाँ से चले. कल ही दो बाइक वालों की हलकी सी टक्कर हो गयी, में तो पहुँच गया हिसाब लेने. वो तो कमबख्त आपस में सुलह करके भाग निकलना चाह रहे थे. पर मुझे तो अपना हिसाब लेना ही था. कर दिया फ़ोन १०० नबर पे. गाडियाँ थाने पहुंचाई और उन्हें भी लेकर चला. थाने में. पाँच सौ एक से लिए और पाँच सौ दूसरे से. तब कही जाकर गाडिया उनको दिलाई. उनसे पाँच सौ थाने के स्टाफ को भी दिलाये.
एक - अरे इन लोगों को जरा भी लिहाज़ नही है. हम भी इनका ही तो भला करते है. चालान काटा तो पूरे पैसे देने होंगे और नही काटा तो कम में ही बात बन जायेगी. गणित नही आता सच इन लोगो को. दुनियादारी तो सच में सरकारी आदमी को ही आती है.
दो - चल मेरा पीक टाइम हो रहा है...आज जाम भी तगड़ा है....कुछ जुगाड़ कर लू जरा...
एक - ओके बाय बाय.

Friday, August 8, 2008

बरसात के दिन आए...

दिल्ली में आज सुबह से ही बरसात हो रही है. दिल्ली ही नही इससे जुड़े आस पास के इलाकों में भी बादल मेहरबान है. यूँ तो सभी को ये मौसम अच्छा लगता है, भीगा भीगा समां (भले ही बीमारी हो जाए), चारों और हरियाली (कूडे को मत देखिये), टिप टिप बहता पानी (सड़क पर भरे समंदर को नज़रअंदाज कर दें ) , घर में बनते गरमागरम पकोडे और चाय (बशर्ते मैडम का मूड ठीक हो ), से सारी बातें बरसात को सार्थक करती है और इसीलिए बरसात लोगो को अच्छी लगती है. लेकिन यही बरसात ऑफिस जाने वालो को खलनायिका लगती है. कमबख्त छुट्टी करवा देती है या बीमार कर डालती है. कई की माशुकाएं तो इतनी रोमांटिक हो जाती है कि आशिक को भी मजबूरन बहाना बना कर ऑफिस से बंक मारनी पड़ती है. रात भर से हो रही बरसात के चलते ऑफिस जाने वाले इस कदर डर जाते है कि मुह अंधेरे तैयार हो जाते है, इस जुगाड़ में कि जैसे ही रुकेगी तो निकल पड़ेंगे. कुछ लोग तो इस चक्कर में रैन कोट पहने घूमते है. कि कहीं पहनने में समय ख़राब न हो. लेकिन बादल मरे इतने बेईमान कि यहाँ थम गये, आप निकले और अगले मोड़ पर कमबख्त बरस पड़े आप पर. कहा तक बचोगे भाई.

ऐसे में रैन कोट और बरसाती कुछ काम नही आती. सिर सूखा बच गया तो पैर भीग जायेंगे और पैर बच गये तो सिर भीग जाएगा. बस से आने जाने वालो का तो और बुरा हाल है. बस स्टाप पर बाइक और स्कूटर वालो का जमघट रहता है ऐसे में खुले में बस का इन्तजार करना पड़े तो पता चले. छाते ऐसे में आपदा प्रबंधन तो करते हैं लेकिन पूरा नही बचा पते. कमर से नीचे का हिस्सा तर हो जाएगा. बस से उतरने के बाद भी भीगना पड़ता है.

बाइक वालो के साथ कई तरह की दिक्कते होती हैं. आस पास से निकलने वाले जानबूझकर पानी की बौछार आप पर मार कर जाएंगे और आप कुछ नही कर पायेंगे. किसी दिन लगा कि बरसात होने वाली है, आप रैन कोट पहन कर निकल लिए और बरसात दगा दे गयी अब सारे रास्ते मूर्खों कि तरह रैन कोट पहने चलो.


किस्सा रवि का. ..
रेवाडी से आने वाले हमारे सहकर्मी रवि प्रकाश रोज नौ बजे (पाँच बजे घर से निकलने पर ) ऑफिस पहुँचते हैं. रोज तो अपने दोस्त के साथ उनके वाहन से आते है तो २ घंटे का समय बच जाता है. लेकिन जिस दिन दोस्त नही आ पता, रवि प्रकाश को ऑफिस आने के लिए नेट ४ घंटे लगते है. रेवाडी से धौला कुँआ फिर महारानी बागः और फिर नॉएडा. बेचारे घर से पाँच बजे निकलते है और नौ बजे ऑफिस पहुचते है. आज हमने सोचा की रवि मिश्रा तो ऑफिस नही आ पाएंगे लेकिन आश्चर्य जनक रूप से रवि मिश्रा आठ बजे ही ऑफिस आ गये. हमने पूछा तो उन्होंने बताया आज सडको पर बारिश के चलते भीड़ कम थी तो जल्दी पहुँच गये. उन्होंने बताया कि वो रेन कोट पहन कर बस में आए तो हमारी हँसी छूट गयी. बोले कि ट्रिक काम कर गयी. बारिश के दिनों में बसों में खिड़की के पास की सीट पर कोई नही बैठता क्युकि वह पानी आता है. लेकिन में रेन कोट पहन कर उसी गीली सीट शान से बैठा. रोज तो लटकते हुए आते है, ये बरसात की मेहरबानी थी कि आज कई महीनो बाद सीट मिली. कहने लगे कि लोग मुझे हैरान होकर देख तो रहे थे लेकिन आज मैंने पूरा मज़ा लिया. बारिश में खूब चला और टाइम से ऑफिस भी पहुँचा. मतलब की बारिश से हमारे रवि भाई को फायदा हो गया. चलो कुछ तो अच्छा हुआ.

नोट--आज का लेख जल्दबाजी में बरसात का मौका देख कर लिखा गया लेख है. बस अपने अनुभव आपको बताने थे. और रवि भाई का प्रकरण डालना था. त्रुटि हो गयी हो तो माफ़ करे. यही अपील बरसात से भी है

Saturday, August 2, 2008

चंदा की रोटी...

चंदा जैसी रोटी को खाने की जिद पाले है.

इंसां लार टपकती कितनी लंबी लीभ निकाले है.

बिजली के नंगे तारों का खौफ दिलो में बैठा है.

इस कीमत पर ही आंखों ने देखे आज उजाले हैं.

नर्म रोटिया सिर्फ़ अमीरों के हिस्से में आयी हैं.

गुरबत के चूल्हों पर तो बस पत्थर गये उछाले हैं.

इमां की कश्ती पर बैठे कुछ ही मांझी ऐसे हैं.

दौलत के बहते दरिया में जो पतवार संभाले हैं.

पैदा होते हम कागज़ के पैर लिए तो अच्छा था.

इस दुनिया में सब कागज पर सड़क बनाने वाले हैं.

इंसां की काली करतूतों से गाफिल यूँ लगता है.

आने वाले दिन मावस की रातों से भी काले हैं.

विशाल गाफिल से साभार.

Thursday, July 31, 2008

वो गरीब पुलिसवाला...


जिस मकान में हम लोग रह रहे है, वहां सामने के बहुमंजिला मकान में तीसरे माले पर एक परिवार है. निम्न मध्यम वर्गीय परिवार, दो बेरोजगार बेटे, एक आलसी सी अधेड़ माँ और एक ५० साल का पुलिसवाला. चौंक गये न. जी हां पुलिसवाला. दो बेरोजगार बेटो का बाप और पुलिस वाला. आलसी सी अधेड़ बीवी का पति और वो भी दिल्ली की पुलिस में. फ्लेट्स में तीसरी मंजिल लेने वाला कोई निम्न मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा आदमी हो सकता है, पुलिस वाला नही. और पुलिस वाला निम्न मध्यम वर्गीय तो हो ही नही सकता. पुलिस वाला चाहे किसी भी पोस्ट पर हो उच्च वर्गीय ही होगा. ये दिल्ली और भारत के अधिकतर इलाको का अलिखित इतिहास और क़ानून है. यहाँ पुलिसवाले गरीब नही मिलेंगे और जो मिलेंगे हमारे सामने वाले की तरह किसी ब्लॉग में जगह पा लेंगे. बहरहाल मैं कहानी सुना रही हु उस पुलिसवाले की जो हमारे सामने रहता है. सुबह पता नही कब हाथ में डंडा हिलाता हुआ बस स्टाप की तरफ़ निकल जाता है. उसके दोनों बेरोजगार बेटे उसके जाते ही छत पर पतंग उडाने चले जाते है और आलसी सी अधेड़ बीवी ( हमारे पति महाशये ने उनका यही नामकरण किया है) कपड़े सीने के बहाने बालकनी में बैठकर हमारे घर की और ताकती रहेगी. पति को शायद उसकी यह ताकने की कला नही भाती और उससे बहुत चिड़ते हैं.उस घर में दो कमरे हैं. छोटी सी रसोई और एक अदद बालकनी हैं. (अगर ये बालकोनी न होती तो शायद पुलिसवाले की गरीबी से हम और आप अनभिज्ञ रहते. ) घर में बेहद सिंपल फर्नीचर, खाट भी है. कूलर नही है और पंखे की हवा सही तरह से लेने के लिए सब जमीन को ठंडा करके जमीन पर ही सोते है. क्या उसके पास इतने पैसे नही कि जमीन लेकर मकान बना सके. फ्लेट में तो मजबूर लोग रहते है. आखिर कितना गरीब है ये पुलिस वाला. पता नही क्यों ऐसे रहते है. मन में हलचल होती है लेकिन पूछने की हिम्मत नही होती. शाम को जब पुलिसवाला डंडा हिलाता हुआ घर आता है तो भी उसके हाथ आश्चर्यजनक रूप से खाली होते है जो आम तौर पर दूसरे पुलिस वालों के नही होते. उसके बेटे किसी मलाईदार कंपनी में नौकरी क्यों नही करते, बीवी स्मार्ट सी बनकर क्यों नही रहती, घर में शानदार फर्नीचर क्यों नही है. वो अब भी खाट पर बैठकर क्यों खाता है, और वो मोटा तो कतई नही है. बिल्कुल स्लिम ट्रिम. उसके घर पर भी कोई नही आता. ना जी कोई नही, वर्ना पुलिसवालों के घर तो उनकी अबसेन्ट में भी फरियादी आते रहते है. कोई नल ठीक करवा रहा है तो कोई गमले रखवा रहा है, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नही, कल तो पुलिसवाले की बीवी एक पौधा लेने के लिए विक्रेता से लड़ रही थी. आप लोगो की तरह मेरे मन में भी सवाल उठता है कि आख़िर वो पुलिसवाला है तो पुलिसवाले की तरह दिखता क्यों नही है. क्यों रिश्वत से उसका घर भरा नही है. उसके बेटे उसके पुलिसवाला होने के वावजूद बेरोजगार क्यों है. क्या वो अपने पड़ का सदुपयोग करके अपने बेटो को सेट नही करवा सकता. ऐसा है तो क्यों है. क्या उसे सही तरह से घूस नही मिलती या वो घूस नही लेता. क्या वो शरीफ है या देखने का नाटक करता है. क्या उसके बेनामी खाते होंगे. हालाँकि इसी गली मे एक भूतपूर्व थानेदार का भी मकान (आलिशान बंगला और एक बहुमंजिला फ्लेट) है लिकिन उसकी शान बघारने लिए पेज कम पड़ जाएगा, वो फिर कभी. समझ में नही आता की इस पुलिसवाले को क्या परेशानी है. ये अमीर क्यों नही है, ये मोटी तोंदवाला क्यों नही है. इसे रिश्वत खानी नही आती क्या. क्या कोई इसकी मदद करेगा. इसे घूस खानी सिखा दे कोई, तो हम भी शर्म से नही गर्व से कह पाएंगे. की हम पुलिसवाले के घर के सामने रहते है.

Wednesday, July 30, 2008

अरे ये क्या हुआ....

कुछ दिनों पहले शनि देव जी की कृपा से हमारा पैर टूट गया. बच्चे (आठ माह के हो गये हैं हमारे मन) को लेकर सीढ़ी से उतर रहे थे कि उसने छलाँग (कूदने और उछलने में माहिर, शायद सर्कस में करियर बनाएगा.) लगा दी. हम घबरा कर उसे बचाने के चक्कर में अपनी टांग तुडा बैठे और भाई साहब को चोट तो क्या खंरोच तक नही आई. और फिर भी सब उनके बारे में इस तरह चिंता कर रहे थे जैसे उन्हें बहुत चोट लगी हो. खेर हमें अस्पताल ले जाया गया और वहां घोषणा हुई कि पैर में फ्रेक्चर है उफ़ हो गयी सप्ताह भर की छुट्टी. डर के मारे फीवर भी आ गया. दरअसल ये फीवर टांग टूटने के चलते नही आया, ऑफिस की छुट्टी के चक्कर में आया. डॉक्टर ने सप्ताह भर का आराम की हिदायत , प्लास्टर और दो दर्जन गोलियां गिफ्ट में दे दीं. जी तो आया कि उसका पैर तोड़ दू लेकिन फिर मन मसोस लिया.
खेर ये आराम की हिदायत बहुत महँगी और तकलीफदेय रही. घर पर मेहमान आते, हल चाल पूछते, चाय शाई पीते और मुफ्त की सलाह देकर चले जाते. हां जाते हुए मन भाई साहा को पैसे जरूर देकर जाते. टांग हमारी टूटी और मन भाई साहब का बैंक बैलेंस बढ़ रहा था. सास ससुर , जेठ जेठानी, मित्रजन, पड़ोसी माभी आए और गये. हम उन्हें अपने गिरने का सिलसिलेवार और रता रटाया किस्सा सुनाते, पति महाशय चाय बनाते और पिलाते rahate. मेहमान किस्सा सुनते हुए चाय पीते और सलाह देते. अब आराम करो, ज्यादा चलोफिरो नही, फला फला दवाई खाओ, जडी बूटी खाओ हमने भी खाई थी. जल्द ठीक हो गये. तुम भी खाओ. पैर कि मालिश करो, ऐसे बेठो, वैसे बेठो. पति तो नसीहत मिलती, इसे आराम कराओ, बेचारी से काम मत कराना. फिर मन को प्यार करते और उसे पैसे देकर चले जाते. मन को पैसो का मोल तो पता नही लेकिन माँ के सारे दिन पास रहने (कामकाजी हैं न, बच्चा आठ घंटे नानी के पास रहता है. ) पर बहुत खुश नजर आता. कभी टांग पर चढ़ जाता और कभी पेट पर. खेर राम राम करते ८ दिन बीते और हमारा प्लास्टर काटा गया. फिर कच्चा प्लास्टर बाँध कर घर भेज दिया. अब ऑफिस आए तो मानो सहकर्मियों को कोई मजेदार उड़न तश्तरी दिख गयी. सब हंसकर पूछते, अरे ये क्या हुआ, कहाँ से छलांग लगा दी. सीधा सरल बोलना तो शायद पत्रकारों को आता ही नही. सभी को अपने गिरने के किस्सा सुना सुना कर एकता कपुर के धारावाहिक की तरह बोर हो चले थे. ना आने ये प्रोग्राम कब तक चलेगा. कब तक हम सहानभूति बटोरते रहेंगे और कब तक टूटा पैर हमारी लाचारी पर हँसता रहेगा.
अब हम वापिस आ गये है तो लिखने की भी कोशिश करेंगे. (आख़िर पैर टूटा है, हाथ नही). पर फिर भी दर्द करता है (दिमाग नही पैर. ) आप सभी को हमारी नमस्ते.

Thursday, July 17, 2008

बम बम भोले.

सावन का पावन माह आरम्भ हो रहा है. देश के कौने कौने से कांवर लेकर शिव भक्त हरिद्वार के तट पर पहुंचेंगे और गंगा जी से शिव बाबा का जलाभिषेक करेंगे. सावन का महीना वैसे भी शिव पूजा के लिए बेहद उत्तम है. इस मौके पर आपके लिए विशेष पेज. बम बम भोले. जानिए शिव और शिवत्व के बारे में....सावन की महिमा से भी परिचित होने का उत्तम अवसर. http://www.amarujala.com/kanwaryatra07/default.asp

Tuesday, July 15, 2008

उल्लू बनाया आपने...


काफ़ी कम लोग जानते है कि दिल्ली के प्रगति मैदान (जहां हर साल ट्रेड फेयर लगता है) में शाकुंतलम थियेटर हैं जहां हर भाषा की, नई और पुरानी लेकिन बेहतरीन फिल्म दिखाई जाती है. अन्य सिनेमा हॉल कि तरह यहाँ फस्ट सेकंड या थर्ड क्लास की सीटें नही होती. सभी के लिए एक जैसी सीट होती है और फ़िल्म भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लगती है. टिकट भी औरों की तुलना में काफ़ी कम होते है. यहाँ हमने कई फ़िल्म देखी, पुरानी फिल्मों में अंगूर, नई फिल्मों में दिल है कि मानता नही. राजा हिन्दुस्तानी, बेटा और कई सारी....

उन दिनों हम भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहे थे. अखबार में देखा तो शाकुंतलम पर टाइटेनिक लगी थी. हम अपने आप को रोक नही पाये और अपने दो साथियों के साथ चल पड़े टाइटेनिक देखने. ये भी पक्का नही था कि टिकट मिलेगा या नही. फिर भी उत्साह था. सो पहुच गये गेट पर. तब अप्पू घर भी हुआ करता था. पहला झटका तब लगा जब पता चला कि टिकट समाप्त. अब क्या करे. फ़िल्म आज ही देखनी थी. साथियों ने कहा कल देख लेना. मन नही माना और वही चक्कर लगाने लगे. ..तभी गेट के अन्दर से लड़के लड़कियों का एक ग्रुप आता दिखाई दिया. वो हँसते और शोर सा मचाते आ रहे थे. बाहर आकर उनमे से एक लड़के ने हमें बैचेनी से चक्कर काटते देखा और पूछा 'क्या हुआ, टिकट नही मिला' हमने ना में सर हिला दिया. उसने कहा, कोई बात नही, हम कुछ लोग यही फ़िल्म देखने आए थे लेकिन अब मूड नही है सो वापस जा रहे है. आपको चाहिए तो हम आपको तीन टिकट दे सकते हैं. इतना कहते ही उन्होंने मेरे हाथ में तीन टिकट थमा दिए. अपनी तो निकल पड़ी ... वाह क्या दिन है, आज तो मज़ा आ गया. ऊपर वाले ने आपको भेज दिया और फ़िल्म का जुगाड़ कर दिया. हमने झट से पर्स से पैसे निकले और उन्हें पकडाने लगे, लेकिन ये क्या! उन्होंने यह कहते हुए पैसे लेने से मना कर दिया कि आप तो हमारी दोस्त की तरह हो और दोस्तों से पैसे क्या लेना. हम क्या बहुत कहे, क्या सच में ऐसे लोग भी हैं.... फ़िर भी हमने कहा.. पैसे तो आपको लेने ही होंगे पर वो देवदूतों कि तरह ना न की रट लगाते रहे. आख़िर में बोले कि चलिए... हमें एक कोल्ड ड्रिंक पिला दीजिये और समझये हो गया हिसाब. हमने पूरे उत्साह से उनको 50 रुपये की कोकोकोला पिलाई और अंदर की ओर चल दिए. उधर वो मण्डली भी अपनी कार की तरफ़ बढ रही थी. हम उनकी मदद से कृतार्थ होकर लगातार खुश होकर उन्हें हाथ हिलाकर बाई बाई कर रहे थे. जैसे ही गेट पर पहुंचकर गार्ड को टिकट दिए वो हंसकर बोला 'अप्पूघर जाओगी क्या मैडम'.

हम चकित और भौचक..... देखा तो तीनो टिकट अप्पू घर के थे. हमारे होश फाख्ता, दिमाग सुन्न, आंखों के आगे अँधेरा सा छा गया. आंखों से आंसू निकल पड़े. ये तो हमें सरे आम बेवकूफ बना गये..उधर हमारी साथी भी रूआसी हो गयी. अब क्या करे. उधर वो मण्डली अभी गाड़ी में बैठ रही थी. पता नही दिमाग ने क्या बत्ती जलाई, हम झट से चिल्लाये पकडो उनको, मेरा पर्स मार लिया. गार्ड झट से चिल्ला कर दौडे...गाड़ी में सवार लोग सकपकाए. गार्ड ने गाड़ी के आगे जाकर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर को कॉलर पकड़ कर बाहर निकाला. तब तक हम भी वहा पहुच चुके थे. गाड़ी में सवार लोग बोल पड़े....हमने पर्स नही चुराया, चाहे तो देख लीजिये. हम तब तक उस मजाक और अपमान का बदला लेने के लिए तत्पर हो चुके थे. हमारे आंसू बह रहे थे और गार्ड हमारे आंसुओं से ज्यादा प्रभावित होकर उन्हें डांट रहे थे. शायद बेवकूफ बनाये जाने का गम था या अपमान का गुस्सा .. हम चीख कर बोले.... पुलिस को फ़ोन लगाओ, पुलिस का नाम आते हो मण्डली को पसीने आ गये. उन में से एक ने कान पकड़ कर कहा प्लीज़ गलती हो गयी, अब ऐसा मजाक किसी के साथ नही करेंगे. लेकिन पुलिस को मत बुलाओ. उन्होंने कोल्ड ड्रिंक के पैसे लौटाए और माफ़ी मांगने लगे. लेकिन हमारे मन में तो अपमान की जो ज्वाला भड़क गयी थी. हमने सरे राह उनसे (लड़कियां नही) उठक बैठक लगवाई और फिर उन्हें जाने दिया.

मन में तो हम अभी तक भौचक थे. दिल धाड़ धाड़ कर रहा था. कोई खुलेआम हमें उल्लू बना गया. बाद में बिना फ़िल्म देखे हम तीनो इस समझौते के साथ घर लौट चले कि इस प्रकरण के बारे में कोई किसी तीसरे को नही बताएगा. आज भी टाइटेनिक फ़िल्म देखकर एक बार वो ही बाद याद आ जाती है. जब भी सिनेमा हाल जाते हैं तो वो घटना मन में तैरने लगती है और बिना इच्छा के मन गाने लगता है उल्लू बनाया आपने.
नोट - सभी पाठकों से निवेदन है कि इस घटना के बारे में किसी को ना बताएं.वरना आगे आपको ऐसी सामग्री पड़ने को नही मिलेगी. वैसे कई किस्से है जब हम बेवकूफ बने.

'हम आपके हैं कौन'


बात उन दिनों की है जब हम कॉलेज से बंक मार कर फ़िल्म देखने जाया करते थे. 'हम आपके हैं कौन' फ़िल्म मैंने फस्ट इयर में ऐसे ही 9 बार देख ली थी. उसमे माधुरी और सलमान का प्यार और फ़िल्म में शादी ब्याह का माहौल मुझे रोमांचित कर जाता था. वैसे भी शादी की थीम की फिल्म पहले कम ही आई थी. तो हम सारी लड़कियां मिल कर दूसरे पीरिअड में ही निकल जाया करते थे. घर में बस के किराये के लिए जो पैसे मिलते थे उनसे ही फ़िल्म देखी जाती थी. रोज के 20 रुपए मिलते थे और हम कोशिश करते थी कि हे भगवान् आज यू स्पेशल बस आ जाए तो किराया बच जाए. ऐसे ही किराया बचा बचा कर मैंने 9 बार फ़िल्म देख डाली. हमारा कॉलेज (विवेकानंद कॉलेज) दिल्ही के एक कोने में था और लगभग सभी सिनेमा हाल कनाट प्लेस में थे. सो हमारा गैंग स्टाफ बस में स्टाफ चलाकर (अकेले हिम्मत नही होती थी) कनाट प्लेस पहुँचता और फिर पैदल पैदल सभी हॉल चेक किए जाते. जहा टिकेट मिल जाता वही पर जम जाते. करीब नौ या दस लड़किया होती थी. बाहर किसी को भी एक दूसरे का नाम लेकर पुकारने की मनाही थी. सो हम एक दूसरे को अनु मनु तनु, पिया जिया, टिया जैसे नामों से पुकारते थे. उस दिन भी हम चले ये फ़िल्म १० वी बार देखने. चल तो पड़े मगर पता नही क्यों आज दिल धड़क रहा था लग रहा रहा कि आज ना कर दूँ.. लेकिन सब ने जोर दिया तो चल पड़े. रीगल पर टिकेट मिल गया. पूरा ग्रुप हो हल्ला करते हुए घुस गया. फ़िल्म शुरू हो चुकी थी. सलमान का चेहरा फ़िर मन लुभा रहा था. उसका बड़ा घर, चुलबुला अंदाज़ कह रहा था बस ऐसा ही जीवनसाथी मिल जाए मुझे भी, तो मज़ा आ जाए. माधुरी आई तो उसके स्टाइल, और कपड़ो ने मोहित कर लिया. सोचा हेरोइनो के तो मजे होते है. बस रोज ही मेकयेप और मंहगे कपड़े, शानदार गाडिया. ये सब सोचते सोचते इंटरवल हो गया. जैसे ही लाइट जली तो आगे की सीटो पर नज़र गयी और होश उड़ गये . वहां पापा बैठे थे, अपने सरदार दोस्त के साथ. दोनों का मुंह आगे कि ओर tha. मेंरे तो पसीने छूट गये. अब क्या करू. साथ में बैठी सीमा को बताया तो उसने कहा, फ़िल्म का नाच गाना देख और जब हिरोइन की बहन मरे तो उठकर चल देंगे. उसके बाद तो रोना पीटना मचता है न. और वैसे भी तू रोने लगती है, ऐसे सीन पर. सारे गैंग को कोड वर्ड में समझा दिया गया की आज फ़िल्म बहन के मरने के साथ ही ख़तम कर देनी है. पापा का डर इस कदर बैठा कि मैं इंटरवल के दौरान टॉयलेट भी नही जा पाई. दम साधे सामने देखती रही. जब हॉल का सुरक्ष्कर्मी कही लाइट लाइट मारता तो मैं मुंह नीचे कर लेती. क्या पता पापा कब पीछे देख लें. खैर हीरोंइन की बहन मरी और हम धीरे धीरे निकलने लगे. कुछ शरारती टाइप के लडके चिल्ला पड़े, अरे कहां जा रही है ये टोली, माधुरी की शादी तो देखती जाओ. बाहर पहुंचे तो सिर भारी हो रहा था. लगा जैसे पापा कही पीछे से आ गये तो. घर पहंची तो माँ ने कहा तबियत खराब है क्या. हमने कहा, आज बड़ीi देर तक पड़ती रही ना, सिर में दर्द है. झटपट खाना खाया और बिस्तर में घुस गये. पापा २ घंटे बाद आए. खुश थे ओर उसी फ़िल्म का गाना गा रहे थे. माँ से कहा आज लौटते हुए रीगल से 'हम आपके हैं कौन ' के चार टिकेट ले आया हूँ. कल सब चलेंगे. फ़िल्म देखने.

Monday, July 14, 2008

हमारे नए ब्लोगिये...

राम भाई और अमरेश, ये दोनों ही हमारे नए ब्लोगिये है. हमने बड़े ही उत्साह से इनका ब्लॉग जगत में इस्तकबाल किया और समझेबुल भाषा में बताया कि लिखना कितना जरूरी है. चाहे कविता लिखो या पुराण, चाहे बघारो फिल्मी ज्ञान, लेकिन हर बार ऐसा लिखो,न कम हो किसी का सम्मान. ये दोनों ही बड़े अच्छे पत्रकार हैं नए नए हैं और जाहिर है कि जोश से भरपूर हैं इनके ब्लॉग पर आप अभी से ही काफ़ी कुछ पाएंगे अमरेश का ब्लॉग amareshthegreat.blogspot.com है और हमारे राम भाई का ब्लॉग है apnaparay.blogspot.com
जरूर देखियेगा....

Thursday, July 10, 2008

सत्ता में छुपन छुपाई

लेफ्ट ने सरकार गिराई,
कांग्रेस ने गुहार लगाई,
सपा ने खाई खूब मलाई,
भाजपा ने खुरचन भी न पाई,
उसने फिर हुंकार लगाई,
हाय मार गयी महंगाई.

Wednesday, July 9, 2008

पापा आए मम्मी के रोल में...



जब मैंने मन ( मेरा बेटा) को जन्म दिया तो तरुण (पति) के व्यह्वार में सकारात्मक बदलाव देखा. छोटे बच्चो को गोद में उठाने से कतराने वाले तरुण मन का काफ़ी ख्याल रखते हैं. उसे नहलाना, सुलाना और रात में रोने पर उसे बहलाना सब तरुण ही करते हैं. और ये करते हुए उन्हें किसी तरह की शर्म या संकोच नही होता बल्कि वो सहजता महसूस करते हैं. मैंने जब पूछा तो बोले कि अपने बच्चे से इस तरह जुड़ने में उन्हें सकून और आत्मीयता महसूस होती है. आस पास के भी कई लोग कुछ ऐसा ही करते दिख रहे है लेकिन किसी शर्म के साथ नही बल्कि पूरे मन और खुशी के साथ. आज पापा सिर्फ़ रोटी की जुगाड़ ही नही कर रहे बल्कि बच्चों की परवरिश में भी पूरा योगदान दे रहे है. ये सब देखकर अच्छा लग रहा है. आज से चार पाँच पीढी पहले तक के मर्द बच्चो की देखभाल तो दूर उन्हें गोद में उठाना भी मर्दानगी के ख़िलाफ़ समझते थे. उनके लिए बाप होने का मतलब घर को एक वारिस देने भर से था. घर का काम, बच्चों की देखभाल माँ कि जिम्मेदारी थी. लेकिन अब ज़माना बदल रहा है. ममता और वात्सल्य जैसे शब्द माँ के अलावा पिता के खाते में भी जुड़ते जा रहे हैं. आज के पापा, खाना बनने के साथ साथ बच्चे की देखभाल भी हँसी खुशी करता है. उसकी मर्दानगी काम और जिम्मेदारिओं में विभाजित नही हो रही. आज के पापा ऑफिस की फाइल के साथ साथ बच्चे कि नेपी और सेरेलक तैयार कर रहे है. बड़ी बात ये है कि ये काम वो मजबूरी में नही बल्कि आनंद के लिए कर रहा है. इसमे उसे खुशी मिलती है, अपने परिवार से जुड़ने की खुशी. जबसे परिवार छोटे हुए हैं तो पति पत्नी के बीच काम कि विभाजन रेखा धुंधली हो गयी है. अब दोनों कमाते है और दोनों ही घर के ही ख्याल रखते हैं. बच्चे के लिए रसोई में दूध गरम करना, उसके कपड़े बदलना, उसे नहलाना, रात में लोरी गाना और उसके साथ कुश्ती लड़ना, ये सारे काम पापा को भा रहे हैं. यहाँ तक कि शादी और पार्टी में भी पापा अपने बच्चे को सँभालने में मस्त देखे जा सकते है ताकि मम्मी चैन से खाना खा सके और पार्टी का मज़ा ले सके. दिन भर ऑफिस से तक कर जब पापा घर आए तो बच्चा उन्हें देखकर खुशी से झूम जाता है, मम्मी कि गोद की बजाये उसे पापा की गोद भाती है तो पापा के प्यार चार गुना बढ जाता है. ऐसे में कौन पापा होंगे जो अपने बच्चे के लिए ये छोटे छोटे लेकिन खुशी देने वाले काम करने से परहेज करेंगे.

समीर भाई का बचपन...

समीर बोले तो हवा का झोंका....कुश के साथ कोंफी पीने वाले लोग वाकई बेहतरीन लिखते हैं. रंजू जी, समीर भाई. का लेखन शानदार है. समीर भाई काम के साथ साथ इतना वक्त कैसे निकाल लेते है, समझ में नही आता. हम तो चाह कर भी सामंजस्य नही बिठा पाते. कोंफी के दौरान इनकी मस्ती देखकर कुश के साथ कोंफी पीने की इच्छा कर रही है. वैसे में कोंफी की शौकीन तो नही पर ऐसी वार्ताओं का मोह कौन छोड़ देगा... कुश भी खासे दिलचस्प इंसान लगे. ..खेर... सचमुच समीर भाई का बचपन शानदार रहा. कभी कभी लगता है कि गावं में बड़े हुए लोगो का बचपन ज्यादा मस्ती और मजे वाला होता है, हम तो शहर के बच्चे पता ही नही चला कब बड़े हो गये. उनके बचपन के वाक़ये इतने मजेदार लगे कि एक मन किया कि काश में उनकी छोटी बहन होती तो बचपन में उनका सानिध्य मिलता और में भी ये मस्ती कर पाती. वैसे मस्ती तो हमने भी खूब की हैं पर वैसी नही जो समीर भाई ने की. . ..अगली पोस्ट में अपनी कुछ बचपन की यादों को लिखने की कोशिश करेंगे. ..सुन रहे हैं क्या समीर भाई...

Saturday, July 5, 2008

मेरा मन

इक छोटा सा बच्चा सा है मेरा मन,
मां कहती है बड़ा अच्छा सा है मेरा मन
जिन्दगी की चिलचिलाती धूप में,
रसभरे अंगूरों का गुच्छा सा है मेरा मन

Friday, July 4, 2008

मेरा मन

इक छोटा सा बच्चा सा है मेरा मन,
मां कहती है बड़ा अच्छा सा है मेरा मन
जिन्दगी की चिलचिलाती धूप में,
रसभरे अंगूरों का गुच्छा सा है मेरा मन

एक आग है

एक आग है वो जो घरभर को जला दे, एक आग है वो जो धुआं सा उठा दे.
गर आग ये लग जाए तो रहबर को सज़ा हो जाए......
हम आग मोहब्बत की दामन में लपेटे हैं. उनके दिल में जो भड़के तो मज़ा हो जाए.

Thursday, July 3, 2008

एक्सेस डिनाइड

जब से भारत में कोरपोरेट की आंधी आयी है, तब से हर ऑफिस की शान और आन बढ गयी है. इसी क्रम मैं हमारे ऑफिस में भी कोरपोरेट का रंग चढा और हमारा ऑफिस भी हाईटेक हो गया. हम ठहरे कलमकार जीव. कलम घिसते थे, फिर कंप्यूटर पर की बोर्ड बजाने लगे और अब लेपटोप पर उंगलियां फिरातें है. जमाना आगे बढ रहा है ना, सबका काया कल्प होना चाहिए. तो हमारा ऑफिस भो बदल गया. नई बिल्डिंग, नया फर्नीचर ( गद्दे इतने बड़े जिसपर बैठकर आदमी चूहा नजर आए)., कांच की दीवारें, लिफ्ट, शानदार लाइटिंग, गेस्ट रूम्स कैंटीन (गाने सुनते हुए खाइए.). मतलब हर चीज बिंदास. लेकिन इन सारे सुविधाओं के साथ एक बहुत बड़ी असुविधा भी चली आई.
उस हाईटेक बला का नाम है थम्ब डिटेक्टर यानि वो इलेक्ट्रोनिक सुरक्षा प्रणाली जो अंगूठे की छाप लेकर ही दरवाजा खोलती है. इसे थम्ब स्केनर भी कहते है. हमारे मालिको को ये पसंद थी लिहाजा आनन् फानन में सभी के अंगूठों के निशान लिए गये. ये निशान देते हुए दिमाग ने सोचा कि हम पड़े लिखे पत्रकार बिरादरी के लोग अंगूठा लगा रहे हैं या अपने निरक्षर होने का सबूत दे रहे है. खैर अंगूठा लगाया और 'भिगोया, धोया और हो गया' वाली स्टाइल में वेरीफाई हो गया. असल परेशानी तो मशीने लगने के साथ शुरू हुई. ये कमबख्त अंगूठा पराया हो गया. ऑफिस में घुसने से पहले गेट पर लगी मशीन द्रोणाचार्य की तरह अंगूठा मांगती और हम अंगूठा दे दे कर परेशान हो जाते लेल्किन मरी मशीन है कि बार बार कहती एक्सेस डिनाइड. अब बिना अंगूठा जांचे मशीन गेट नही खोलेगी और हम ऑफिस में नही घुस पाएंगे. अब करो किसी और भलेमानुस का इन्तजार जो अपने अंगूठे के दान से हमें अंदर धकेल सके. कभी कभी तो स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती जब दूसरे महानुभाव का भी अंगूठा नकार दिया जाता और मशीन किसी मधुबाला कि तरह मनवांछित का अंगूठा लेने से पहले गेट नही खोलेंगी वाली मुद्रा में रूठी रहती, हम भौचक से गेट पर खड़े रहते और सोचते कि यहाँ आदमी से ज्यादा औकात उसके अंगूठे को दे दी गयी है. कभी कभी बाथरूम गये तो वापिस लौटने में डर लगता. मशीन रूठ गयी तो फ़िर कांच बजा बजा कर अन्दर के लोगो से गेट खोलने की गुहार करनी पड़ेगी. राहत की बात ये थी ही कांच की आर पार दिखाई देता है.
ज्यादा परेशानी ये कि मशीन ऑफिस के हर दरवाजे (बाथरूम और कैंटीन को छोड़कर) पर सीना चौडा किए खड़ी थी. किसी भी काम से कही भी जाईये और इस मशीन से लड़िये. कही ये आपका अंगूठा स्वीकार कर लेगी और कही पर बेशर्मी से कह देगी एक्सेस डिनाइड. ये एक्सेस डिनाइड हम पर हावी होता जा रहा था. लगता था जिन्दगी एक्सेस डिनाइड होती जा रही है. रोज नई नई तरकीब से अंगूठा लगते और हार जाते.
दिल को तसल्ली देने वाली बात यही थी कि हमारे मालिक और बड़े अफसर भी इस मशीन से उतने ही, बल्कि हमसे कुछ ज्यादा ही त्रस्त दिखे. मशीन उस वामपंथी मजदूर की तरह थी जो मालिको का हाथ हो या अंगूठा स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझती थी. सच बड़ा अजीब, या कहे कि सकून सा लगता था जब बड़े अफसर या मालिक मशीन को अंगूठा दीखते और मशीन उन्हें कहती एक्सेस डिनाइड. मालिक छिड़कर फिर अंगूठा दबाते और इस बार जरा जोर से. लेकिन मशीन मालिक और मजदूर सब बराबर कि मुद्रा में बेखबर रहती. तब मालिको को भी किसी छोटानुभाव की मदद लेनी पड़ती. मदद लेने वाला तो खेर आदत के मुताबिक भूल जाता लेकिन मदद देने वाला कई दिनों तक इस मदद की चर्चा करके लोगो की वाहवाही लूटता. सच अपने ही ऑफिस में बेगाने हो गये है, कोरपोरेट कि दुनिया में अनजाने हो गये हैं. कभी कभी जब मशीन रूठ जाती है तो अंगूठा आड़ा तिरछा और उल्टा लगा कर देखते हैं, खुंदक में आकर कई बार तो पैर का अंगूठा लगाने का विचार भी किया लेकिन शिस्टाचार के चलते ऐसे ना कर सके. कभी कभी जिस दिन मशीन उदार मन से परमिशन ग्रांटेड कहती है तो लगता है कि ऑफिस में घुसने की नही बल्कि जीने की परमिशन मिल गयी.
पिछले दिनों चर्चा हुई कि क्यों न अंगूठे की बजाय सभी के गलो में इलेक्ट्रोनिक कार्ड टांग दिए जाए. कार्ड मशीन से लगाओ और अंदर जाओ. लेकिन कुछ बड़े लोगो को ये सुझाव पसंद नही आया कि वो गले में पट्टा डाले घूमे. वैसे भी गले में कम्पनी के नाम का पट्टा डाले कई लोग बसों और मेट्रो में दिख जाते है. लगता कि घर में घुसने के लिए भी कार्ड लगाते करते होंगे.
फिलहाल मशीन का रूठना और मनाना जारी है, उसकी दया हो तो अन्दर जाते है और उसकी दया न हो तो अंगूठा और मुहं दोनों लटकाए किसी के आने का इन्तजार रहाता है. कोई आए तो ले जाए, हमारी लाख दुआये पाये.

Wednesday, July 2, 2008

क्या कश्मीर हमारा नही


कश्मीर में अमरनाथ यात्रा बोर्ड को दी गयी जमीन का विरोध देखकर लगता है कि कश्मीर हिन्दुस्तान का नही पकिस्तान का हिस्सा है और हिंदू वहा शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं. राज्य सरकार का रवैया भी हैरान कर देने वाला था. अमरनाथ यात्रा हिंदुओं की आस्था का प्रतीक ही नही बल्कि हिंदू मुस्लिम एकता की एक मिसाल है. हिंदुओं को यात्रा स्थल तक पहुँचने का काम मुस्लिम करते हैं. वो भी पूरी लगन के साथ. दशकों से ये मिसाल चली आ रही थी कि इसे विराम देने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है. यात्रिओं के लिए दी गयी जमीन का विरोध राजनीति रंग ले चुका है. क्या कश्मीर केवल मुस्लिमों का है. क्या हिंदुओं का यहाँ कुछ नही. ये हिन्दुस्तान का हिस्सा है. और यहाँ की जर-जमीन पर हिंदुओं का भी उतना ही हक है जितना मुस्लिमो का. कुछ लोगो के विरोध को देखकर राज्य सरकार ने जमीन देने का फ़ैसला रद्द कर दिया जिससे ये साबित हो गया कि सरकार राज्य का नही बल्कि अपने वोट बैंक का ज्यादा ध्यान देती है. आख़िर वन क्षेत्र की थोडी सी जमीन देने से क्या हरियाली ख़तम हो जाती. क्या डल झील पर शिकारे बनाने से प्रकृति दूषित नही होती. और अमरनाथ यात्रिओं के लिए इस जमीन पर बनाये गये निर्माण तो अस्थाई होते. फ़िर इतना बवाल क्यों. इसके पीछे अलगाववादी नेताओं के वो धारणा काम कर रही है कि कश्मीर उनका है और हिंदुओं या हिन्दुस्तानिओंका नही. ऐसे में जब बोर्ड के लिए जमीन दी गयी तो उनको लगा कि उनकी जमीन पर कब्जा किया जा रहा है. सरकार एक बात तो मान ले कि उनसे ढुलमुल रवैये के कारण कश्मीर हमारे हाथ से निकलता जा रहा है. क्या कश्मीर की सुरक्षा का जिम्मा केवल सुरक्षा बलों का है. सरकार को जमीन नही लोगो के दिलों को सुरक्षित करना चाहिए जो अलगाववादिओं के शिकंजे में आ गये है. ऐसा ही चलता रहा हो कश्मीर की आवाम अपने मुल्क की बजाये दूसरे मुल्क का साथ देगी और हम देखते रह जायेंगे. अलगाव वादिओं के प्रति सख्त रवैया अपना कर सरकार अवाम में फ़ैल रहे जहर को रोक सकती है. अलगाव वादिओं से बातचीत के बजाये उन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए ताकि जनता के दिलों में फ़ैल रही नफरत रुक सके. सुरक्षा बलों पर हो रहे हमले और उनका विरोध देश के प्रति बढ रही उपेक्षा का प्रतीक है. जो दिन पर दिन बढता जायेगा और एक दिन चरम पर आ जाएगा.इससे बचना होगा.लोगो के दिलों मे देश के लिए खोया प्यार फ़िर से लाना होगा.

Thursday, June 26, 2008

हाय ! ये अदा



मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नही चलता. कयोंकि मैं रोज संतूर से नहाता हूं.

मनमोहक मुस्कान

Wednesday, June 25, 2008

तिरंगा या माल्या...

अभी हाल ही में लॉर्ड्स के मैदान पर भारतीय क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीतने की 25 वी वर्षगाँठ मनाई. 83 की विश्व कप विजेता टीम के साथ साथ बीसीसीआई के चेयरमैन शरद पवार भी वहां मौजूद थे. और एक शख्स था वहां, जिस पर सबकी नजरें थी, विजय माल्या. विजय माल्या आइपीएल की एक टीम का मालिक है, गौर करने वाली बात ये है कि पूरे लॉर्ड्स के मैदान में एक भी तिरंगा नही दिखाई दिया. पूरे जश्न में, जहां भारत की विजय को गर्व के साथ याद किया जा रहा था, वहां भारत के ही गौरव का प्रतीक चिहन नजर नही आया. टीवी स्क्रीन पर जो चीज़ बार बार दिखाई दे रही थी, वो था विश्व कप विजेता खिलाडियो के कंधे पर लगा यूबी ग्रुप का बेज. यूबी ग्रुप के मालिक विजय माल्या इस जश्न में इस तरह शामिल थे जैसे 83 के वर्ल्ड कप में उन्होंने ही टीम इंडिया की कोचिंग की हो. तिरंगा तो कहीं माहि था, था तो केवल यूबी ग्रुप का बेज. व्यवसायीकरण आज क्रिकेट पर इतना हावी हो गया है कि खेल भावना और देश भावना सेकेंडरी हो चली हैं. वो खिलाडी जो २५ साल पहले इतनी ख्याति पा चुके हैं, कि हर कोई उन्हें सलाम करता है, आख़िर उन्हें या बीसीसीआई को ऐसी क्या जरूरत पड़ गयी कि उन्हें शराब कि कंपनी चलाने वाले माल्या को साथ लेना पड़ा. आई पी एल तो खैर बाजारवाद से उपजी मानसिकता का प्रमाण है, लिकिन 83 के मैच विजेताओं को माल्या से कैसा प्रेम. जाहिर है, माल्या चाहे तो इन बुध गये खिलाडियो को किसी विज्ञापन में दिखा दे तो कुछ पैसा इन्हे भी मिल जाए. या फिर इन्हे आईपीएल की अपनी रोएल चेलेंज में ही कोई नौकरी दे दे. बीसीसीआई को भी माल्या से पैसे की उम्मीद है. तभी तो पूरे जश्न में पवार माल्या को साथ साथ लिए फिरते रहे. लॉर्ड्स के पवेलियन में यूबी और गीतांजलि के बैनर तो दिख रहे थे लेकिन अपने देश के सम्मान तिरंगे को कहीं लगना किसी को ध्यान नही आया. या फिर तिरंगा जान बूझकर नही लगाया गया. आज के खिलाडी देश के लिए नही पैसे के लिए खेल रहे है, ये तो सभी कहते हैं लेकिन पुराने खिलाड़ी इस खेल में कुछ ढीले पड़ गये है. अब मौका है तो वो भी पैसे की इस बहती गंगा में देर से ही जरा तर तो हो जायें डुबकी न सही हाथ तो धो ही लें. फिर पानी चाहे माल्या का हो या किसी और का.

Tuesday, June 24, 2008

गंगा जी के घाट पे...

राम तेरी गंगा मैली हो गयी, तीर्थयात्रियों के कपड़े धोते धोते. सही ही तो है. आजकल लोग गंगा में पाप धोने नही कपड़े धोने और शरीर का मेल धोने जाते हैं. पिछले दिनों हरिद्वार जाने का मौका मिला तो मैं देख कर दंग रह गयी कि लोग सचमुच कितने गंदे हैं. अपने घरो को साफ़ करने के लिए दिन मे तीन चार बार सफाई करने वाले यहाँ बेधड़क गंद फैला रहे हैं गंगा जी के घाट पर.घाट पर (गंगा जी के मन्दिर के पास वाला घाट जहा शाम की आरती होते है ) पर गंदगी का ढेर. जमीन चीकट इतनी कि पैर फिसल जाए. भिखारियो के अड्डे, घाट के पार जाने वाली सीढियो पर अस्थाई घर बनाये बैठे अधनंगे और अपंग. वो सीढियों पर कब आपका पैर पकड़ ले और आप गिर जाए, कह नही सकते. प्रशासन इनकी रोकथाम करने पर धयान नही देता (शायद मिलीभगत हो).प्लास्टिक की चादरें (घाट पर बैठने के लिए.) बेचते बच्चे . देखने में बच्चे, पर अनजान को चूना लगाने में नम्बर एक. पाच पाँच रुपए की चादरें विदेशिओं को बीस बीस रुपये में बेच दी. इनसे हफ्ता वसूलते कुछ गुंडे टाइप के लड़के. बच्चो का मुंडन करने के लिए पीछे फिरते नाई. बहरूप धरकर लोगो से पैसे मांगते भांड. घाट पर प्रसाद बेचते दूकानदार, भिखारियो को खिलाने के लिए खाना भी बिक रहा है. दाल चावल, पूरी (अठन्नी के आकार की. ) और चने. पुन्य कमाने के लिए ये खाना खरीद कर वहा बैठे भिखारियो को दीजिये और कुछ देर बाद ये भिखारी यही खाना दुकारदार को वापिस करके कुछ पैसा बना लेंगे. और फिर दूकानदार ये खाना किसी और को बेच देगा (भिखारियो को खिलाने के लिए.) क्या कमाल का रोस्टर चल रहा है गंगा जी के घाट पर धरमशाला कहने के लिए तो धर्मार्थ के लिए बनाई गयी हैं लेकिन प्रति यात्री डेढ़ सौ रुपये वसूल रही हैं तीन दिन से ज्यादा ठहरे तो सौ रुपये एक्स्ट्रा. खाना पीना बाहर खाने की व्यवस्था जरूर कुछ सस्ती है. लेकिन जो कुछ भी है, साफ़ सफाई से कोसो दूर है. पीने के लिए साह पानी की कमी सब तरफ़ है. कमाल है, पीने का पानी नही है गंगा जी के घाट पर. मसले और कुचले फूलों की गंदगी और प्रसाद की चिकनाहट खूब गिरती है गंगा जी के घाट पर. शाम कि आरती जरूर मोहक होती है. एक साथ इतने सारे दीये और प्रज्वलित मुख्य आरती मनमोहक समां बाँध देती है. उस दौरान गंगा की लहरे भी तेज हो जाती हैं. लेकिन उन लहरों में अपने फूल और प्रसाद से भरे दोने बहाकर लोग मतिअमेत कर देते है. आरती से प्रसन्न हुए गंगा माता जरूर बुरा मान जाती होंगी कि इतने फ़ूल, धूप-deep, अगरबती और माचिस के तीलिया मुझे चढ़ा कर कौन सी मनोकामना पूरी कर रहे हो. रोज ये ही प्रताड़ना झेलती है गंगा माता अपने ही घाट पर.
नहाने वालो को पुण्य कमाना है तो गंगा जी में एक डुबकी काफ़ी नही, साबुन और उबटन लगा लगा कर नहाएँगे. अंडरवीयर भी गंगा जी में ही धोयेंगे. महिलाये अपने और अपने साथ आए सभी लोगो के कपड़े लत्ते भी यहाँ ही धो लेंगी (जाने घर जाकर पानी मिले या न मिले). बच्चों की पोटी मुत्ती सब गोपनीय रूप से संपन कर लिए जायेंगे गंगा जी के घाट पर. अब एक नज़ गंगा जी पर. अविरल बह रही हैं. हर कि पडी भले ही गन्दी हो गयी हो लेकिन हरिद्वार में और कई घाट हैं जहा अब भी साफ़ सफाई मिल जायेगी. पुन्य कमाने के चक्कर में सब हर कि पैडी पर ही भागते है. अन्य घाटों पर साफ़ सफाई भी है और भीड़ भी कम है. भिखारियो कि तादात भी कम होगी. कुछ आश्रमों ने भी गंगा जी को अपने अपने घाटों में बाँट लिया है. यहाँ सीढिया भी मिलेंगी और उनसे जुड़ी लोहे की चेन भी. पास ही पीपल का पेड़ और उसके नीच शिवलिंग की पूजा करती कई बूढी महिलायें. यहाँ आपको बाजारीकरण नही मिलेगा. शोर शराबा नही मिलेगा. मिलेगी तो केवल गंगा जी की साफ़ और अविरल धार. पुन्य कमाना है तो हर की पैडी पर जाइये. अगर आप भी गंगा जी जा रहे है तो मेरी एक ही अपील है कि नहाइए तो खूब लेकिन गंगा जी को गन्दा मत कीजिये. क्यूकि करोडो लोगो कि श्रद्धा का केन्द्र है गंगा जी के घाट पर.

Saturday, June 21, 2008

हाय री महंगाई निकल भागी

आजकल की ताजा और तीखी ख़बर. महंगाई ११ के फेर से निकल भागी. . कमबख्त, काफ़ी दिनों से फिराक में थी. छलांगे लगना जो आ गया था, रोज ही पहले से ज्यादा लम्बी छलांग लगा रही थी. इससे पहले कि कोई रोके, एक लम्बी कूद मरी और हो गयी ११ के पार. अब लकीर पीटते रहो वो वापिस नही आने वाली. सयानों ने काफ़ी समय से आगाह कर रखा था कि छोरी पर ध्यान दो वरना हाथ से निकल गयी तो आटे दाल का भावः पता पड़ जायेगा. लेकिन सरकार ने एक ना सुनी. अब मलो हाथ, चाहे तेल वालो को कोसो या आर्थक मंदी का हवाला दो, गयी चीज़ हाथ में वापिस नही आती. लेकिन किसने उकसाया महंगाई को. वो तो ऐसी नही थी. अपनी हद से कभी कभी ही बहार आया करती थी और सरकार भी तब ये कह कर उसका बचाव कर लिया करती थी ही विकासशील देशों में ऐसा होता रहा है. अब वो ही सरकार मुह छिपाए घूम रही है. दरअसल महंगाई की आदत को बिगाड़ा भी सरकार ने ही था. उसे छलांगे लगाना भी तो इसी सरकार के राज में आया. इसी सरकार ने इसे भड़काया और अपनी जेबें गरम की. और अब सरकार के पास कहने के लिए कुछ नही है. गली मुहल्ले वाले विरोधी भाजपाई तरह तरह के ताने मारकर जीना मुहाल किए दे रहे हैं, वाम दल रुपी पति महोदय तो घर से निकाल देने पर उतारू है. सरकार थार थार कांप रही है. अगले साल चुनाव है और सर पर ये आफत. अब तो नैया जरूर डूबेगी., नाक कटेगी सो अलग. महंगाई के पर कातने के लिए वित्तमंत्री भइया और दूसरे भाईयों ने खूब कोशिश की लेकिन वो नही मानी. अब सोनिया आंटी भी कुछ नही बोल रही. सबसे ज्यादा चोट तो बेचारी जनता को लगा है. उसे आटे दाल का ही नही, तेल और साबुन का भी भावः पता चल गया है. वो भावः जो उसे कभी नही भूल पायेगा. सब्जी भी महंगाई के निकल भागने के साथ ऊंचाई पर जा रही है. टमाटर तो टमाटर, आलू भी सीना तान रहा ही. भिन्डी हो या तुरई, सब हलकान करने पर तुले हैं. शिमला मिर्च भी तीखी होने लगी है. अब किसे क्या कहे.... सेलेरी बढती है २ रुपये और महंगाई बढती है ५ रुपये. अब ये तीन रुपये कहां से लायें.चोरी करें या डाका डालें. चलो डाका ही दाल लेते हैं. पकड़े गये तो मुकदमा पूरा होने तक जेल में रोटी दाल तो मिल ही जायेगी. चोरी करने के लिए कुछ सोचना पड़ेगा. आजकल पुलिस वाले जब चोरी के इल्जाम में जेल में डालते हैं तो बाहर आदमी नही उसकी लाश आती है. तो फिर चोरी का प्लान केंसिल डाके की योजना बनाई जाए. अब ये महंगाई और आगे भागी तो कतल न करना पड़ जाए. सुना है कतल के आरोपिओं को तो सुप्रीम कोर्ट खोज खोज (चाहे कितने ही साल क्यों न गुजर जायें.) कर सजा देता है.

Friday, June 20, 2008

ये हाल अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

कल अपने विभाग मैं कुछ नए लोगो की भरती के लिए टेस्ट लेने का मौका मिला. 15 लोग थे जो सभी पत्रकारिता मे एम ऐ कर रहे थे. अपने आपको बड़ा गंभीर और कुछ नया सीखने को जागरूक दर्शाते हुए सभी पेपर देने से ज्यादा इस बात को जानने के लिए उतावले थे की ट्रेनिंग कितने दिनों में पूरी हो जायेगी और कन्फर्म कब तक हो जायेंगे. टेस्ट में पास होने के किसी को कोई चिंता नही थी. सब चाह रहे थे की ट्रेनिंग मिले और उनके रिज्यूमे में अमरउजाला का नाम शुमार हो जाए. ये जल्दबाजी किस बात की जो बिना काम सीखे ही लिख दिया जाए कि अमुक पेपर में काम किया और अमुक में ट्रेनिंग. दरअसल किसी अखबार में ट्रेनिंग मिलते ही ये सभी रंगरूट किसी न्यूज़ चेनल और अखबार में सब एडिटर के लिए ट्राई मरेंगे. इस बात का पता हमें भी है और ये भी जानते हैं. यहाँ भले ही ये कुछ सप्ताह के लिए काम करे या कुछ दिनों के लिए, इनके रिज्यूमे में अमर उजाला या किसी और पेपर का नाम जरूर एड हो जायेगा.
कभी कभी सोचती हू कि ये जल्दबाजी आख़िर किसलिए. अभी तो बहुत कुछ सीखना है. पत्रकारिता केवल डिप्लोमा या डिग्री कर लेने से आने वाली विधा नही है. ये काम के आपका पूरा समय और समर्पण मांगती है. आप एक महीना में दस अखबारों में काम करके पत्रकार नही बन सकते. एक स्थान पर समय और पूरा दिमाग लगाना होगा. घटनाओं और समाज पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी. इसके लिए डिप्लोमा नही वरन सामायिक दृष्टि चाहिए. पर ये नए खिलाडी नही जान पाते या फिर जानना नही चाहते. इन्हे तो जल्द से जल्द बड़ा पत्रकार बनना है जो किसी बड़े दंगे या चुनावों की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा हो. विज़न के बिना, केवल अपना रिज्यूमे बढाये जाने से पत्रकारिता नही आती. लेकिन कोई नही समझ पाता. ख़ुद मेरे अखबार में कई ऐसे ट्रेनी आए जो आने के बाद एक हफ्ता भी नही टिके, जागरण या भास्कर में सब एडिटर बन गये, वहा भी महीने भर से ज्यादा नही टिके और किसी और अखबार में ज्यादा पैसे पर काम करने लगे. ज्यादा पैसा और रिज्यूमे में ज्यादा संस्थान शगल सा बन गया है. इसमे केवल पत्रकारों का ही दोष नही, एक दूसरे के एम्प्लोई खींचने और तोड़ने की परंपरा मीडिया में भी चल पडी है.

आज वो नजारा मैं देख रही हू. यहाँ लड़के आपस में बतिया रहे है...अरे दिवाकर की तो एन डी टीवी में लग गयी. ट्रेनी और कवर करने भी जा रहा है. और प्रिया तो अपने लोहिया जी की पहचान के चलते भास्कर में चली गयी. बस मेरा जरा यहाँ कुछ हो जाए. फिर मामाजी ने कहा है कि अगले महीने जी न्यूज़ में करवा देंगे. उनका फ्रेंड वहा है न..यानि अब ये कह सकते हैं कि 'ये हाल है अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

Thursday, June 19, 2008

ये हाल अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा..

कल अपने विभाग मैं कुछ नए लोगो की भरती के लिए टेस्ट लेने का मौका मिला. 15 लोग थे जो सभी पत्रकारिता मे एम ऐ कर रहे थे. अपने आपको बड़ा गंभीर और कुछ नया सीखने को जागरूक दर्शाते हुए सभी पेपर देने से ज्यादा इस बात को जानने के लिए उतावले थे की ट्रेनिंग कितने दिनों में पूरी हो जायेगी और कन्फर्म कब तक हो जायेंगे. टेस्ट में पास होने के किसी को कोई चिंता नही थी. सब चाह रहे थे की ट्रेनिंग मिले और उनके रिज्यूमे में अमरउजाला का नाम शुमार हो जाए. ये जल्दबाजी किस बात की जो बिना काम सीखे ही लिख दिया जाए कि अमुक पेपर में काम किया और अमुक में ट्रेनिंग. दरअसल किसी अखबार में ट्रेनिंग मिलते ही ये सभी रंगरूट किसी न्यूज़ चेनल और अखबार में सब एडिटर के लिए ट्राई मरेंगे. इस बात का पता हमें भी है और ये भी जानते हैं. यहाँ भले ही ये कुछ सप्ताह के लिए काम करे या कुछ दिनों के लिए, इनके रिज्यूमे में अमर उजाला या किसी और पेपर का नाम जरूर एड हो जायेगा.
कभी कभी सोचती हू कि ये जल्दबाजी आख़िर किसलिए. अभी तो बहुत कुछ सीखना है. पत्रकारिता केवल डिप्लोमा या डिग्री कर लेने से आने वाली विधा नही है. ये काम के आपका पूरा समय और समर्पण मांगती है. आप एक महीना में दस अखबारों में काम करके पत्रकार नही बन सकते. एक स्थान पर समय और पूरा दिमाग लगाना होगा. घटनाओं और समाज पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी. इसके लिए डिप्लोमा नही वरन सामायिक दृष्टि चाहिए. पर ये नए खिलाडी नही जान पाते या फिर जानना नही चाहते. इन्हे तो जल्द से जल्द बड़ा पत्रकार बनना है जो किसी बड़े दंगे या चुनावों की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा हो. विज़न के बिना, केवल अपना रिज्यूमे बढाये जाने से पत्रकारिता नही आती. लेकिन कोई नही समझ पाता. ख़ुद मेरे अखबार में कई ऐसे ट्रेनी आए जो आने के बाद एक हफ्ता भी नही टिके, जागरण या भास्कर में सब एडिटर बन गये, वहा भी महीने भर से ज्यादा नही टिके और किसी और अखबार में ज्यादा पैसे पर काम करने लगे. ज्यादा पैसा और रिज्यूमे में ज्यादा संस्थान शगल सा बन गया है. इसमे केवल पत्रकारों का ही दोष नही, एक दूसरे के एम्प्लोई खींचने और तोड़ने की परंपरा मीडिया में भी चल पडी है.

आज वो नजारा मैं देख रही हू. यहाँ लड़के आपस में बतिया रहे है...अरे दिवाकर की तो एन डी टीवी में लग गयी. ट्रेनी और कवर करने भी जा रहा है. और प्रिया तो अपने लोहिया जी की पहचान के चलते भास्कर में चली गयी. बस मेरा जरा यहाँ कुछ हो जाए. फिर मामाजी ने कहा है कि अगले महीने जी न्यूज़ में करवा देंगे. उनका फ्रेंड वहा है न..यानि अब ये कह सकते हैं कि 'ये हाल है अखबारे गुलिस्ता का...अब खबरे चमन का क्या होगा...

Tuesday, June 17, 2008

हिमालय की यात्रा...

बढते पर्यटक उद्यमों के साथ हलके उपकरणों और कपडों के विकास के साथ ही हिमालय की यात्रा अब काफ़ी आसान और आनंददायक और आसान हो गयी है. अगर कठिन रास्ते हैं तो आसान और छोटे रास्ते भी हैं. वाहन, हेलीकॉप्टर आपकी पसंद, बजट, समय और संसाधन के आधार पर आपको हिमालय खोजने मैं मदद करेंगे. १२, ००० से १४,००० फीट की ऊंचाई पर भी छोटे छोटे गावं बसे हुए हैं. यहाँ अपनी गायों, भेडों को चराते हुए चरवाहे, गडरिये और गूजर मिल जायेंगे जो आपको पूरे रास्ते गाइड करते रहेंगे. वैसे भी अब ज्यादातर चोटियां आबादी से भर गयी हैं हिमालय की चढाई करने की बजाए हिमालय की यात्रा करे तो ज्यादा आनंद मिलेगा. इस दौरान सुंदर और शानदार द्रश्यों से यात्री अपनी थकान भूल जाते हैं और नए जोश के साथ आगे चलते हैं. आप हिमालय का पर्वतारोहन करने के साथ साथ शारीरिक व्यायाम करते हैं जो आपको घर लौटने तक चुस्त रखता है. १० से १५ किमी की एक दिन की यात्रा का आनंद केवल वो ही लोग ले सकते हैं जो फिट हों और प्रकृति और पहाडों मैं रूचि रखते हों. एक तरफ़ कलकल करती बहती हुए नदी की धारा और दूसरी और फूलों से भरे चारागाहों की कतार. कही बरफ से ढके पहाड़ और कहीं खाई. ये ही तो रोमांच है. यहाँ सब कुछ शुद्ध मिलेगा. पानी, हवा और खाना भी. हिमालय मैं काफ़ी ऊंचाई पर बसे गावों का अभी तक आधुनिकता से संपर्क नही हो पाया है. यहाँ बिजली, और तेलेफोने जैसे सुविधायें अभी तक नही आ पाई हैं. लेकिन यहाँ के लोक इनके बिना भी स्वयं मैं पर्याप्त हैं. पूर्वी हिमालय में घने बांस के जंगल है. गाविओं में भी बांस के घर हैं और ये पेड़ खेती की जमीन के चारों ओर फेले हुए हैं. असम, भूटान और सिक्किम के क्षेत्रों नेपाल पर नेपाली प्रभाव छाया है. जबकि दूसरी तरफ़ पशिमी नेपाल गढ़वाल और कुमायूं में देवदार के जंगल है. यहां गावोँ में लकड़ी और स्लेट के ठोस मकान बनाए जाते है. हिमालय में मौसम ज्यादा बर्फीला है. यहाँ की जमीन सूखी और बंजर है. यहाँ सपाट परछाती के मकान लकड़ी और पत्थर के बनाये जाते हैं. यहाँ के क्षेत्र पर लद्दाखी और तिब्बती प्रभाव छाया है.

अमरनाथ पर जा रहे हैं क्या...

हिमालय सदियों से यात्रियों परवातारोहिओं, तीर्थयात्रियों और तपस्विओं को आकर्षित करता आ रहा है. बर्फ से ढकी इसकी चोटिया और विशाल ग्लेशिअर लोगो को अपनी प्रवीणता और साहस को बनाये रखने के लिए प्रलोभित करते रहे है. साधू और सन्यासी तो अमरनाथ जा रहे है पुण्य कमाने, चले हम भी अमरनाथ की यात्रा के बहाने हिमालय की कुछ अनछुई सुन्दरता से वाकिफ हो लें..हिम रेखा से आठ हजार फुट नीचे , प्रकृति आपको अनवरत रूप से यह खड़ी चोटियों के शांत वैभव से नीचे जल्प्रपाती झरनों लहलहाते हरे भरे वनों फूलों की चादर ओढे चारागाहों और पेड़ पौदों के एक ऐसे संसार मैं ले जायेगी जहां मोती जैसे अल की नदियां बहती है और प्रकृति आपको एक स्पंदित करने वाले दूसरे ही संसार मैं ले जायेगी. हिमालय अपने आप मैं एक अनोखा, अनछुआ और शांत संसार समेटे हुए है. यहां कई गांव बसे हुए हैं. यह के लोगो तो ये तो पता है कि दिल्ली और मुम्बई कहाँ है लेकिन हर किसी की तरह दिल्ली या मुम्बई जाने का उतावलापन नही. यहां के निवासी अपने आस पास के वातावारण के लिए स्पंदित भी हैं और आधुनिक सभ्यता की अनिश्चितता से अनजान भी. पुरातन काल से ही हिमालय की चोटियों पर शांति की तलाश मैं जो तपस्वी गए, वो वही के होकर रह गए. वह उन्होंने देवाश्र्य, तीर्थस्थल और आश्रम बनाये जो हिंदू समाज के पारिवारिक नामो से मिलते होने के कारण ये प्रसिद्ध हुए. कहते हैं कि हिमालय पर सबसे पहले पहुचने वाले साधू नही वरन शिकारी और चरवाहे थे. इनके पास हिमालय की चडाई के लिए कोई विशेष प्रशिक्षण या आरोही तकनीके नही थी. बस कुछ नया जरूरत और लगातार परिश्रम के चलते इन्होने हिमालय कर जीवंतता को खोज निकाला. ये दुर्गम चोटिया और बर्फीली चादरों से ढके शिखर आम जन के लिए ईश्वरीय निवास है तो जोशीले और चुनौती पसंद लोगो के लिए शान्ग्रीला.
बाकी बाद में...

Saturday, June 14, 2008

ये है नॉएडा मेरी जान


दिल्ली हो या मेरठ , फरीदाबाद हो या हापुड़, और तो और बुलंदशाहर जिसे देखो नॉएडा की तरफ़ कूच कर रहा है. नॉएडा नौकरी वाला शहर जो बन गया है. एनसीआर मैं और दिल्ली मैं नॉएडा काम करने वालो का प्रतिशत कुछ ज्यादा ही हो गया है. यही नही देश के सभी भागो से लोग यह नौकरी करने के लिए भागे आ रहे है. नॉएडा रोजगार के मामले मैं होट सिटी बन गया है. मैं ख़ुद भी नॉएडा में हूँ और मेरे पति भी. एक अनार सो बीमार वाली कहावत यहां भी हो रही है. लोग इतने, और जगह की कमी. ऐसे में यह प्रोपर्टी के दाम आसमाम पर जा रहे हैं. जिन लोगों की अपनी जमीन हैं. वो चार मंजिले मकान बनाकर किराया खा खा कर धन्ना सेठ बन रहे हैं. मजबूरी में आदमी को इनके मंहगे मकान लेने पड़ते है. लड़के लड़कियां ग्रुप बनाकर एक कमरे में चार चार रहते है. खाना पेइंग गेस्ट के रूप में मकान मालकिन के घर खाया या फिर ढाबा जिन्दाबाद. यहां का पानी तो आपको बिल्कुल सूट नही करेगा. पैसा है तो एक्वा गार्ड लगवा लें या फिर तीस तीस रुपए में पानी के डिब्बे लीजिये. लाइट- भी बड़ी ही विकट समस्या है. आती कम है और जाती ज्यादा है. नॉएडा पुलिस के बारे में तो आजकल मीडिया में आप रोज ही सुन रहे है. पुलिस की नाक के नीच लूट होती है, खून तक हो जाते है. और पुलिस केवल जांच करती रह जाती है. सच मानिए तो नॉएडा की तरह यह कि पुलिस भी कुछ सुस्त है. नॉएडा में कुछ है तो वो है, बड़ी बड़ी कम्पनियां और मॉल्स. शानदार इमारतें और चमकते हुए मॉल्स. ये मॉल्स सब कुछ बेचते है. सुई से लेकर कार तक मिलेगी यहाँ.लेकिन जरा सावधान होकर जाएं क्यूकि ये मॉल्स चकाचोंध में आपकी जेब खाली कर देते है. नॉएडा का ट्रेफिक तो पूछिये मत. यहां सड़क पर ऑटो वालो की चलती है. ये सब अपनी मस्ती में चलते और रुकते हैं. ट्रेफिक नियमो की चिंता किसी को नही. लाइट ग्रीन हो या रेड, गाड़ी को सबसे आगे निकल कर ले जाना है. तीन की सीट पर चार को बिठाना और सवारी को भेड़ की तरह भर लेना इनकी पुरानी आदत है. यहां इनकी तानाशाही चली आ रही है. कुछ भी हो, नॉएडा में फिर भी भीड़ है जो कम होने की बजाये बढती ही जा रही है. नॉएडा का क्रेज सब पर चढ़ कर बोल रहा है. ये शहर लोगो को रोजगार जो देता है. जीने की एक आस देता है.